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________________ ३१२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ करने का पुरुषार्थ करते हैं। संयमभाव की उत्पत्ति का कारण त्रस हिंसा से वि होना, तथा असंयमभाव की उत्पत्ति का कारण स्थावर हिंसा से युक्त होना है। इस गुणस्थान में केवल क्षायोपशमिक भाव ही होता है; अन्य नहीं। इस गुणस्थानवत श्रावक ग्यारह प्रतिमाओं को भी धारण करते हैं। कई श्रावक ऐसे भी होते हैं, जै पापकर्मों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अनुमति के सिवाय और किसी प्रकार से भाग नहीं लेते। देशविरतगुणस्थान मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को ही होता है। इस गुणस्थान की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशीन पूर्वकोटि वर्ष की है। " इस गुणस्थान की भूमिका अविरति और सर्वविरति के बीच की है, इसलिए 'मध्यमार्ग' और अतिव्यावहारिक मार्ग भी कहा जा सकता है। इसका अनुसरण करने से आत्मा क्रमशः उन्नति करके अन्ततः आध्यात्मिक विकास के अन्तिम शिखर पर भी पहुँच सकती है। २ (६) प्रमत्त - संयत-गुणस्थान: स्वरूप, कारण, अधिकारी पांचवें गुणस्थान से साधक कुछ और आगे बढ़कर छठे गुणस्थान में आता है। वह इस गुणस्थान में देशविरत से सर्वविरत हो जाता है। वह पूर्णरूप से चारित्र की आराधना प्रारम्भ कर देता है । अतः इस गुणस्थान में उसका व्रत 'अणुव्रत' न होकर 'महाव्रत' होता है। पूर्वोक्त संवासानुमति से भी मुक्त सर्व - सावद्ययोग - प्रवृत्तियों के त्यागी साधु-साध्वी, संत सती या श्रमण- श्रमणी इस गुणस्थान के अधिकारी हैं। १. (क) आत्मतत्त्वविचार, पृ. ४६९, (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ३०, ३१ (ग) तत्त्वार्थ वार्तिक २/५/८ पृ. १०८, (घ) पंचसंग्रह (प्राकृत) गा. १३५ (ङ) स्थूल - प्राणातिपात - मृषावाद - अदत्तादान - मैथुन - विरमणव्रत, परिग्रह - परिमाणव्रत, दिग्परिमाण, भोगोपभोगपरिमाणव्रत, अनर्थदण्डविरमणव्रत तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषध, अतिथि- संविभागवत; यों श्रावक के बारह व्रत हैं। - संपादक महाव्रतों की अपेक्षा अणु (छोटे) होने से आदि के ५ व्रत अणुव्रत कहलाते हैं। -संपादक २. आत्म-तत्व - विचार, पृ. ४१२, ४७०; जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप पृ. १६१ ३. अनुमति तीन प्रकार की होती है - (१) प्रतिसेवनानुमति, (२) प्रतिश्रवणानुमति और (३) संवासानुमति। ( १ ) प्रतिसेवनानुमति - अपने या दूसरे के किये हुए भोजनादि का उपभोग करना, (२) प्रतिश्रवणानुमति - पुत्रादि किसी सम्बन्धी द्वारा किये हुए (शेष पृष्ठ ३१३ पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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