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मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३११
(५) देशविरत गुणस्थान: स्वरूप, कार्य और विकास प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय के कारण जो जीव हिंसादि पापजनक क्रियाओं से सर्वथा विरत तो नहीं, किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने ( क्षयोपशम) के कारण देश (आंशिक रूप ) से विरत होते हैं, वे देशविरत कहलाते हैं। इनकी आत्मिक अवस्था विशेष (आध्यात्मिक विकासावस्था) देशविरत - गुणस्थान है। इसे संयतासंयत, विरताविरत, व्रताव्रत या देशचारित्री के रूप में भी पहचाना जाता है, क्योंकि इसमें कुछ विरति है, कुछ अविरति, अथवा कुछ संयम है, कुछ असंयम। अर्थात्-देशविरत - सम्यग्दृष्टि नामक पंचम गुणस्थान में व्यक्ति की आत्मिक शक्ति पूर्वगुणस्थानों से अधिक विकसित हो जाती है। इस कारण पूर्णरूप से तो सम्यक्चारित्र की आराधना नहीं कर पाता, किन्तु आंशिक रूप से उसका पालन अवश्य करता है। आशय यह है कि चतुर्थ गुणस्थान में जीव को सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) रूप विवेक तो प्राप्त हो जाता है, किन्तु चारित्रमोहनीय के प्रबल प्रभाव के कारण वह उस विवेक (ज्ञान) को सम्यक्चारित्र (सम्यक्क्रिया) रूप में परिणत नहीं कर पाता; जबकि इस पंचम गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म का बल एक निश्चित परिमाण में घट जाता है, इसलिए अपने आत्मविकास में सहायक श्रुतचारित्ररूप या सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्ररूप धर्म को आंशिक (स्थूल) रूप से क्रियान्वित करने का प्रयत्न करता है। इस गुणस्थानवर्ती जीवों को आचारशास्त्र में श्रमणोपासक या व्रती श्रावक कहा गया है। गुणस्थानक्रमारोह के अनुसार पंचम गुणस्थान में आर्तध्यान मन्द तथा धर्मस्थान मध्यम होता है।
इस गुणस्थान में जीव पापमय प्रवृत्तियों को पूर्णरूप से नहीं छोड़ सकता, परन्तु मनोरथ और चेष्टा अवश्य करता है । बहुत-सी महारम्भादि कर्मादानकारी तथा महापरिग्रहादिजनक पापप्रवृत्तियों को तो सर्वथा छोड़ देता है। इस गुणस्थानवर्ती जीव सर्वज्ञ वीतराग देव, जिनागम और निर्ग्रन्थ गुरुओं के प्रति श्रद्धा रखता है, तथा संजीवों की संकल्पी हिंसा से सर्वथा विरत होता है, साथ ही बिना प्रयोजन के स्थावर जीवों की हिंसा भी नहीं करता; इस कारण इसे विरताविरत कहते हैं । इस गुणस्थानवर्ती कई श्रावक सम्यक्त्वपूर्वक एक व्रत लेते हैं, कई दो, कई तीन, यावत् बारह व्रत (पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत ) का निरतिचार पालन
चार
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ ( मरुधरकेसरीजी), पृ. २४
(ख) जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १५९
(ग) आत्मतत्वविचार, पृ. ४६९ (घ) गुणस्थान क्रमारोह, श्लोक २५
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