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________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३०९ से प्रेरित होकर करता है; जबकि सम्यग्दृष्टि व्यापक स्वार्थ, स्वपर - हित की सात्त्विक भावना से सम्पन्न होता है। उसमें अनुकम्पा एवं बन्धुभाव की व्यापक वृत्ति होती है । १ अविरत सम्यग्दर्शन की उपलब्धि और उसका हेतु अविरत सम्यग्दृष्टि की उपलब्धि दर्शनमोह के परमाणुओं से विलय होने से ही होती है। इस गुणस्थान की प्राप्ति का हेतु ही दर्शन-मोह के परमाणुओं का विलय है। सम्यग्दर्शन के विविध अपेक्षाओं से अनेक भेद यह सम्यग्दर्शन एक, दो, तीन, चार, पांच और दस, यों अनेक प्रकार का है। तत्त्वों पर श्रद्धा या रुचि होना एक प्रकार का सम्यक्त्व है। नैसर्गिक और औपदेशिक, ऐसे दो प्रकार का है। नैसर्गिक सम्यक्त्व बाह्य किसी भी कारण के बिना, अन्तरंग में दर्शनमोहनीयु के उपशमादि से होता है, जबकि औपदेशिक या आधिगमिक सम्यक्त्व अन्तरंग में दर्शनमोहादि के उपशमादि होने पर बाह्यरूप से अध्ययन, पठन, श्रवण तथा उपदेश से सत्य के प्रति आकर्षण पैदा होने से होता है। दोनों में दर्शनमोह का विलय मुख्यरूप से है; किन्तु अन्तर केवल बाह्य प्रक्रिया का है। सम्यक्त्व प्राप्त होने के तीन प्रकारों की अपेक्षा से वह तीन प्रकार का है - (१) औपशमिक, (२) क्षायोपशमिक और (३) क्षायिक । २ इनका स्वरूप क्रमशः इस प्रकार है- दर्शनमोह के परमाणुओं का पूर्ण रूप से उपशमन होना, दर्शनमोह के परमाणुओं का अपूर्ण विलय होना, और दर्शनमोह के परमाणुओं का पूर्णतः विलय होना। जिस जीव के अनन्तानुबन्धी चार कषाय और मिथ्यात्वमोहनीय सत्ता में हो, किन्तु प्रदेशोदय एवं रसोदय न हो, उसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह सम्यक्त्व कर्मों के उपशम से प्राप्त हुआ होने से औपशमिकं सम्यक्त्व कहलाता है। किसी आदमी के सिर पर बड़ा ॠण हो और लेनदार उसके लिए कड़ा तकाजा करते हों, तब उस व्यक्ति की १. जैन दर्शन (न्या० न्या० न्यायविजय जी) से भावांश ग्रहण, पृ० १११ १२. २. इन तीनों के साथ सास्वादन जोड़ दें तो ४ प्रकार होते हैं, उसमें वेदक जोड़ दें तो ५ प्रकार होते हैं। इन पांचों के नैसर्गिक और औपदेशिक ऐसे दो-दो प्रकार होने से सम्यक्त्व १० प्रकार हो जाते हैं। -संपादक ३. (क) जैन आचार: स्वरूप और सिद्धान्त, पृ. १५७, १५८ (ख) आत्मतत्व विचार से भावांश ग्रहण पृ. ४५४ (ग) एगविह - दुविह - तिविहं चउहा पंचविहं दसविहं सम्मं । विहं तत्तरुई, निसग्गुवएसओ भवे दुविहं ॥ १ ॥ खइयं खओवसमियं उवसमियं इह तिहा नेयं । खइयाइसासणजुअं, चउहा, वेअग- जुअं च पंचविहं ॥ २ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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