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________________ ३०० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ मिथ्यात्वगुणस्थान को गुणस्थान क्यों कहा गया? आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'योगदृष्टिसमुच्चय' में मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा, इन आठ दृष्टियों का निरूपण किया है। इनमें से प्रथम मैत्रीलक्षणा 'मित्रा' नामक दृष्टि उपलब्ध होने पर ही प्रथम गुणस्थान की प्राप्ति होती है। मित्रादृष्टि प्राप्त होने पर जीव में चित्त की मुद्ता, अद्वेषवृत्ति, अनुकम्पा और कल्याण-साधन की स्पृहा जैसे प्राथमिक गुण प्रकट होते हैं। इस प्रकार प्रथम गुणस्थान में कल्याणकारक सद्गुणों के प्रकटीकरण की प्राथमिक भूमिका रूप होने पर भी इसे 'मिथ्यात्व' के नाम से जो निर्दिष्ट किया गया है, इसका कारण यह है कि इस भूमिका में यथार्थ 'सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं होता है; किन्तु इस गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की भूमिका पर पहुँचने के मार्ग रूप सद्गुण प्रकट होते हैं, जिससे इस अवस्था में किसी-किसी जीव में मिथ्यात्व तीव्र नहीं भी होता। फिर भी मन्द रूप से मिथ्यात्व विद्यमान होने से इस प्रथम गुणस्थान को 'मिथ्यात्व' कहा गया है। साथ ही, यह सम्यग्दर्शन की ओर ले जाने वाले गुणों के प्रकटीकरण की प्रथम भूमिकारूप होने से इसे 'गुणस्थान' भी कहा गया है। .. निश्चयनय की अपेक्षा से गुणों-आत्मगुणों की दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं। सामान्यतया चतुर्गतिक संसार में विद्यमान सभी जीवों में गुण समान हैं, गुणों में न्यूनाधिकता नहीं है। किन्तु संसारी आत्माओं के गुण आवरक-मोहनीय आदि कर्मों के द्वारा आच्छादित हैं। अतएव गुणों के अस्तित्व की दृष्टि से मिथ्यात्व गुणस्थान को गुणस्थान कहा गया है। मगर वे गुण मिथ्यादृष्टियुक्त होने से मिथ्या कहलाते हैं सम्यक् नहीं। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र वृत्ति में कहा है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को जो गुणस्थान कहा गया है, वह जीव के भद्रता आदि गुणों की अपेक्षा से कहा गया दूसरी बात यह है कि पूर्वोक्त 'मित्रा' दृष्टि तक भी जो जीव नहीं पहुंचे हैं, उन सब छोटे-बड़े अधःस्थित जीवों की गणना भी शास्त्रों में मिथ्यात्वगुणस्थान में की है, उसके दो कारण हम पूर्वपृष्ठों में बता आए हैं-(१) मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्यादि जीवों को तथारूप से जानता-मानता है, तथा अन्य अतात्विक वस्तुओं के बारे में १. (क) योगदृष्टि समुच्चय (ख) जैनदर्शन (न्या० न्या० श्री न्यायविजय जी म०), पृ० १०७ २. पंचसंग्रह भा. १ (सं० देव कुमार जैन), पृ० १३० ३. गुणस्थानत्वमेतस्य भद्रकत्वानपेक्षया । . -योगशास्त्र वृत्ति पृ० १, श्लोक १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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