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________________ १२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ आठ कर्मों के बन्धस्थान और भूयस्कारादि चार बन्ध अब उन बन्धों के विषय में विश्लेषण और समीक्षण करना है, जो वैसे तो सामान्य व्यक्ति के द्वारा अग्राह्य, अज्ञेय तथा उपेक्ष्य जैसे होते हैं, परन्तु होते हैं, वे बहुत खतरनाक ! इसलिए मुमुक्षु साधकों के लिए उनसे बचना बहुत आवश्यक है। पंचम कर्मग्रन्थ में मूल कर्मप्रकृतियों के बन्धस्थान का उल्लेख करके उनमें भूयस्कार बन्ध, अल्पतर बन्ध, अवस्थितबन्ध और अवक्तव्यबन्ध की प्ररूपणा की है। मूल कर्म प्रकृतियों के चार बन्धस्थान बन्धस्थान - एक समय में एक जीव के जितने कर्मों का बन्ध होता है, उनके समूह को बन्धस्थान कहते हैं । यद्यपि बन्धस्थान की प्ररूपणा मूल और उत्तर दोनों प्रकृतियों में की गई है। कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं, उनकी बन्धयोग्य उत्तर प्रकृतियाँ १२० हैं । यहाँ सिर्फ मूल प्रकृतियों के बन्धस्थान की प्ररूपणा की गई है। सामान्यतया प्रत्येक जीव प्रतिसमय आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों का बन्ध करते हैं, क्योंकि आयुकर्म का बन्ध प्रतिसमय न होकर नियत समय में ही होता है। अतः आयुकर्म के बन्ध के नियत समय के अलावा सात कर्मों का प्रतिसमय बन्ध होता ही रहता है। जब कोई जीव आयुकर्म का भी बन्ध करता है, तब उसके आठ कर्मों का बन्ध होता है। इस प्रकार सप्त प्रकृतिक और अष्ट - प्रकृतिक, ये दो बन्धस्थान हुए । दसवें गुणस्थान में पहुँचने पर आयुष्यकर्म और मोहनीय कर्मों के सिवाय शेष छह कर्मों का बन्ध होता है, क्योंकि आयु कर्म का बन्ध सातवें गुणस्थान तक ही होता है, और मोहनीय कर्म का बन्ध नौवें गुणस्थान तक ही होता है। इस प्रकार तीसरा छह प्रकृतियों वाला बन्धस्थान हुआ। दसवें गुणस्थान से आगे ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में केवल एक सातावेदनीय कर्म का ही बन्ध होता है। शेष कर्मों के बन्ध का निरोध दसवें गुणस्थान में ही हो जाता है। यह एक प्रकृतिक बन्धस्थान हुआ । इस प्रकार प्रकृतियों के चार ही बन्धस्थान होते हैं- सप्तप्रकृतिक, अष्ट- प्रकृतिक, षट् प्रकृतिक और एक प्रकृतिक । - अभिप्राय यह है कि कोई जीव एक समय में आठों कर्मों का, कोई ७ कर्मों का, कोई ६ कर्मों का और कोई जीव एक समय में एक ही कर्म-प्रकृति का बन्ध १. जा अपमत्तो सत्तट्ठबंधगा सुहुमछण्हमेगस्स । उवसंतखीणजोगी सत्तण्हं नियट्टी मीस अनियट्टी ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - पंचसंग्रह २०९ www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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