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________________ मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २९५ तिर्यंचगति, तिर्यञ्चानुपूर्वी एवं तिर्यञ्चायु) का भी बन्ध नहीं होता, क्योंकि ये चार प्रकृतियाँ तिर्यंचप्रायोग्य हैं। फिर पद्मलेश्या वाला तो उन तिर्यंचों में उत्पन्न हो सकता है, जहाँ उद्योत चतुष्क का उदय होता है, किन्तु शुक्ललेश्या वाला इन प्रकृतियों के उदय वाले स्थानों में उत्पन्न नहीं होता। इसी कारण पूर्वोक्त १६ प्रकृतियाँ शुक्ललेश्या में बन्धयोग्य नहीं हैं। फलतः शुक्ललेश्या में सामान्य से १०४ प्रकृतियों का, तथा प्रथम गुणस्थान में जिन नामकर्म एवं आहारकद्विक, इन तीन प्रकृतियों के सिवाय १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का अभाव होने से मिथ्यात्व के सद्भाव में होने वाली नपुंसकवेद चतुष्क (नपुंसकवेद, हुंडक संस्थान, मिथ्यात्व एवं सेवा संहनन, इन ४ प्रकृतियों) के कम होने से ९७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। तीसरे से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार में उक्त कर्मप्रकृतियों के बन्ध के समान शुक्ललेश्या वाले जीवों के लिए भी बन्धस्वामित्व समझ लेना चाहिए। तत्त्वार्थ भाष्य में तथा संग्रहणी में बताया गया है कि प्रथम दो देवलोकों में तेजोलेश्या, तीन देवलोकों में पद्मलेश्या और लान्तककल्प से लेकर सर्वाथसिद्धपर्यन्त शुक्ललेश्या होता है। इस प्रकार लेश्या मार्गणा में बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए। यद्यपि १४ मार्गणाओं के क्रम में लेश्या मार्गणा का क्रम संयम और दर्शनमार्गणा के बाद आता है, किन्तु सूचीकटाहन्यायेन' पहले भव्यत्व, संज्ञी और आहारक मार्गणा . में बन्धस्वामित्व का कथन करने के बाद अन्त में लेश्या मार्गणा का कथन किया गया है। इस प्रकार इन १४ मार्गणाओं द्वारा जीवों की प्रकृतिबन्ध-सम्बन्धी योग्यता के बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा करके जैन कर्मविज्ञान ने समस्त जीवों के बन्ध की विविध अवस्थाओं का दिग्दर्शन करा दिया है। १. (क) तृतीय कर्मग्रन्थ गा. २१, २२, विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से सारांशग्रहण, . पृ. ९० से ९५ तक (ख) पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वि-त्रि-शेषेषु। -तत्त्वार्थसूत्र ४/२३ सूत्र का भाष्य-शेषेषु लान्तकादिष्वा सर्वार्थसिद्धाच्छुक्ललेश्याः। .. (ग) कप्पतिय पम्हलेसा, लंताइसु सुक्कलेस हुंति सुरा। -संग्रहणी गा. १७५ २. इस प्रकरण में मार्गणाओं के माध्यम से जीवों के बन्धस्वामित्व का कथन सामान्यरूप से तथा गुणस्थानों को लेकर विशेषरूप से किया गया है। इस प्रकरण को स्पष्ट रूप से समझने के लिए द्वितीय कर्मग्रन्थ का अध्ययन कर लेना चाहिए। -संपादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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