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२९४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ लेश्याओं में होता है, किन्तु चारित्रसामायिक तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या में होता है। ऐसा कहा गया है।
इस सैद्धान्तिक मतानुसार चतुर्थ गुणस्थान में देवायु का बन्ध न मानकर ७७ के बजाय ७६ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता है।
तेजोलेश्या से शुक्ल लेश्या तक की बन्ध स्वामित्व-प्ररूपणा तेजोलेश्या पहले मिथ्यात्व-गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक पाई जाती है। तथा सामान्य बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से नरकनवक (नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक तथा विकलेन्द्रियत्रिक इन नौ) प्रकृतियों का बन्ध अशुभ लेश्याओं में होने से, नौ प्रकृतियाँ कम होने से सामान्य से १११ प्रकृतियों का बन्ध होता है और जहाँ नरकनवक प्रकृतियों का उदय होता है, उन स्थानों में तेजोलेश्या वाले पैदा नहीं होते। प्रथम गुणस्थान में जिननाम और आहारकद्विक, इन तीन प्रकृतियों को कम करने पर १०८ प्रकृतियों का तथा दूसरे से सातवें तक बन्धाधिकारवत् बन्धस्वामित्व है। अर्थात् -दूसरे में १०१, तीसरे में ७४, चौथे में ७७, पांचवें में ६८, छठे में ६३
और सातवें गुणस्थान में ५९ या ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। ___ पद्म लेश्या में भी तेजोलेश्या के समान पहले से लेकर ७ गुणस्थान होते हैं, किन्तु तेजोलेश्या की अपेक्षा पद्म लेश्या में यह विशेषता होती है कि इस लेश्या वाले पूर्वोक्त नरकनवक प्रकृतियों के अतिरिक्त, एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर, इन तीन प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं करते; क्योंकि तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रियरूप से पैदा हो सकते हैं, किन्तु पद्मलेश्या वाले नरकादि नौ एवं एकेन्द्रिय आदि तीन स्थानों में भी पैदा नहीं होते। इसलिए पद्मलेश्या का बन्ध-स्वामित्व सामान्य से १०८ प्रकृतियों का, प्रथम गुणस्थान में आहारकद्विक एवं जिन नामकर्म का बन्ध न होने से १०५ प्रकृतियों का है। दूसरे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान. तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धस्वामित्व बन्धाधिकार के समान ही उपयुक्तवत् समझना चाहिए।
शुक्ललेश्या में पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं। पद्मलेश्या की अपेक्षा शुक्ललेश्या की यह विशेषता है कि पद्मलेश्या में अबन्ध योग्य पूर्वोक्त नरकादि १२ प्रकृतियों के अलावा उद्योत-चतुष्क (उद्योतनाम,
१. (क) ओहे अट्ठासयं आहारदुगूण आइ-लेसतिगे।
तं तित्थोणं मिच्छे साणाइसु सव्वहिं ओहो॥२१॥ तेऊ नरय-नवूणा उजोयचउ नरयवार विणु सुक्का।
विणु नरय वार पम्हा, अजिणाहारा इमा मिच्छे॥ २२॥ -तृतीय कर्मग्रन्थ (ख) तृतीय कर्मग्रन्थ, गा: २२ विवेचन (मरुधर केसरी) से पृ.८४ से ९९
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