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२८६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
यद्यपि वैक्रिय काययोग और वैक्रियमिश्र काययोग पांचवें छठे गुणस्थान में होता है, जो लब्धिप्रत्यय है, भवप्रत्यय नहीं, यहाँ भवप्रत्यय वैक्रियद्विक की अपेक्षा से बन्ध-स्वामित्व-प्ररूपणा की गई है।१ ।
(५) वेदत्रय में बन्ध-स्वामित्व-प्ररूपणा नोकषाय-मोहनीय के उदय से ऐन्द्रिय-रमण करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं। वेद तीन हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। वेद का उदय नौवें गुणस्थान तक होता है। सामान्य से तथा पहले से लेकर नौवें गुणस्थान तक बन्धाधिकार में कहे गए अनुसार ही बन्ध-प्ररूपणा समझना चाहिए। . .
(६) सोलह कषायों में बन्ध-स्वामित्व की प्ररूपणा अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थान में होता है। अतः बन्ध तो बन्धाधिकारों में बताये गए बन्ध के समान ही होना चाहिए, किन्तु सामान्य से १२० प्रकृतियों के बजाय ११७ का बन्ध होता है, क्योंकि इस कषाय वाले के सम्यक्त्व और चारित्र नहीं होने से तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक का बन्ध नहीं होता।
अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय चौथे गुणस्थान तक होता है, इस कषाय के समय सम्यक्त्व सम्भव होने से तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध हो सकता है। अत:: सामान्य से ११८ प्रकृतियों का गुणस्थानों में क्रमशः ११७, १०१, ७४ और ७७ प्रकृतियाँ समझना चाहिए। प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क का उदय पंचम गुणस्थान पर्यन्त होता है। अतः इसमें पहले से लेकर पांचवें गुणस्थान तक ५ गुणस्थान होते हैं। इस कषाय के रहने पर सम्यक्त्व हो सकता है, किन्तु सर्वविरति चारित्र न होने से आहारकद्विक का बन्ध नहीं होता। अतः सामान्य रूप से ११८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। और गुणस्थानों में क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७ और ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। .
• १. (क) नारकदेवानामुपपातः। वैक्रियमौपपातिकम् ॥ -तत्त्वार्थसूत्र २/३५, २/४७
उत्पत्तिस्थान में स्थित वैक्रिय-पुद्गलों को पहले शरीररूप में परिणत करना उपपातजन्म है।
-संपादक (ख) सुरओहो विउव्वे तिरिनराउ रहिओ य तम्मिस्से ॥ १६॥ -तृतीय कर्मग्रन्थ (ग) तृतीय कर्मग्रन्थ गा. १६ विवेचन (मरुधर केसरी) से सारांश ग्रहण, पृ. ६२ से
६८ तक
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