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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २८५ इसका बन्धस्वामित्व भी देवगति के समान ही, अर्थात्-सामान्य से १०४, पहले गुणस्थान में १०३, दूसरे में ९६, तीसरे में ७० और चौथे गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का है।
वैक्रियमिश्र काययोग में बन्धस्वामित्व प्ररूपणा वैक्रियमिश्र काययोग के स्वामी भी वैक्रिय काययोग की तरह देव और नारक होते हैं। अतः इस योग में भी देवगति के समान बन्ध होना चाहिए था, किन्तु इसमें कुछ विशेषता है कि यह योग अपर्याप्त अवस्था में ही देवों और नारकों के होता है। इसमें पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान ही होते हैं। देव तथा नारक पर्याप्तअवस्था में ही, यानी ६ महीने प्रमाण आयु शेष रहते ही परभव-सम्बन्धी आयु बांध लेते हैं। इसलिए वैक्रियमिश्र काययोग में मनुष्यायु और तिर्यंचायु के सिवाय अन्य समस्त प्रकृतियों का बन्ध वैक्रिय काययोग (देवगति) के समान समझना चाहिए । -- प्राचीन बन्धस्वामित्व में भी उल्लेख है कि "जीव मर कर परलोक में जाते हैं, तब वे पहले, दूसरे या चौथे गुणस्थान को ग्रहण किये हुए होते हैं। परन्तु इन तीनों के सिवाय शेष ग्यारह गुणस्थानों को ग्रहण कर परलोक के लिए कोई जीव गमन नहीं करता ।" अतएव वैक्रियमिश्र काययोग में सामान्य रूप से १०२, पहले गुणस्थान में १०१, दूसरे गुणस्थान में ९४ और चौथे गुणस्थान में ७१ प्रकृतियों का बन्ध-स्वामित्व समझना चाहिए।
१. (क) मिच्छे सासाणे वा अविरय सम्ममि अहव गहियम्मि। जंति जीया परलोए सेसेक्कारसगुणं मोत्तुं॥
___ -प्राचीन बन्धस्वामित्व (ख) वैक्रिय काययोग लब्धि से भी पैदा होता है, जैसा कि पंचम गुणस्थान में
वर्तमान. अम्बड़ परिव्राजक (देखें-औपपातिक सूत्र में अम्बड़-परिव्राजक का जीवन वृत्तान्त।-संपादक) आदि ने तथा छठे गुणस्थान में वर्तमान विष्णुकुमार मुनि ने वैक्रिय लब्धि के बल से वैक्रिय शरीर किया था। इस अपेक्षा से वैक्रिय काययोग और वैक्रियमिश्र काययोग का पांचवें और छठे गुणस्थान में भी होना सम्भव है, तथापि यहाँ वैक्रिय काययोग में पहले से लेकर चौथे तक चार गुणस्थान तथा वैक्रियमिश्र काययोग में पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान माने गए हैं, इसका कारण यह प्रतीत होता है कि यहाँ देवों और नारकों के स्वाभाविक भव प्रत्यय वैक्रिय काय की विवक्षा है, लब्धि प्रत्ययजनित वैक्रियकाय की विवक्षा नहीं है; इसीलिए आदि के चार गुणस्थान · माने गए हैं। मनुष्यों और तिर्यंचों की अपेक्षा से अधिक गुणस्थानों की विवक्षा नहीं है।
-तृतीय कर्मग्रन्थ पृ. ६४
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