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२६४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
सामान्यतया बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ मानी गईं हैं। उनमें से ५५ विशिष्ट प्रकृतियाँ कर्मविज्ञान में विशेष संकेत के लिए कर्मग्रन्थकार आदि ने बताई हैं-(१) जिननाम, (२-३) सुरद्विक (देवगति देवानुपूर्वी), (४-५) वैक्रियद्विक (वैक्रिय शरीर वैक्रिय अंगोपांग), (६-७) आहारक द्विक (आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग), (८) देवायु, (९-११) नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु), (१२-१४) सूक्ष्मत्रिक (सूक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणनाम), (१५-१७) विकलत्रिक (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति) (१८) एकेन्द्रिय जाति, (१९) स्थावर नाम, (२०) आतप नाम, (२१) नपुंसक वेद, (२२) मिथ्यात्व-मोहनीय, . (२३) हुंडक संस्थान, (२४) सेवार्त संहनन, (२५ से २८) अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, (२९ से ३२) मध्यम संस्थान-चतुष्क (न्यग्रोध परिमण्डल, सादि, वामन,
और कुब्ज संस्थान), (३३ से ३६) मध्यम संहनन-चतुष्क (ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका संहनन), (३७) अशुभ विहायोगति, (३८) नीचगोत्र, (३९) स्त्रीवेद, (४० से ४२) दुर्भगत्रिक (दुर्भगनाम, दुःस्वरनाम, अनादेय नाम), (४३ से ४५) स्त्यानर्द्धि-त्रिक (निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानर्द्धि), (४६) उद्योतनाम, (४७-४८) तिर्यंचद्विक (तिर्यञ्चगति, तिर्यंचानुपूर्वी), (४९) तिर्यंचायु, (५०) मनुष्यायु, (५१-५२) मनुष्यद्विक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी), (५३-५४)
औदारिक-द्विक (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग) और (५५) वज्रऋषभनाराच संहनन।
इस प्रकार संक्षेप में बन्धयोग्य प्रकृतियों का संकेत करके कुछ विशिष्ट प्रकृतियों का समुच्चय बतला दिया गया है। अब क्रमशः पूर्वोक्त १४ मार्गणाओं में से सर्वप्रथम गतिमार्गणा में उसके भेद-प्रभेदों के अनुसार बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा की जाएगी। गति के ४ भेद हैं-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति। अतः क्रमशः बन्धस्वामित्व का विधान किया जाएगा।
(१) गति मार्गणा के माध्यम से बन्ध-विधान नरक गति का बन्धस्वामित्व-बन्ध योग्य १२० कर्मप्रकृतियों में से सुरद्विक आदि उन्नीस प्रकृतियों को छोड़कर सामान्य रूप से १०१ प्रकृतियाँ नरक गति के. जीव बांधते हैं।
१. जिणसुर-विउवाहारदु देवाउ नरय-सुहुम-विगलतिगं।
एगिदि थावराऽयव नपु मिच्छं हुंउ छेवट्ठ॥२॥ अणमज्झागिइ संघयण कुखग निय इत्थि दुहग-थीण-तिगं। उज्जोय तिरि दुगं तिरि नराउ नरउरलदुग रिसहं ॥ ३॥
-तृतीय कर्मग्रन्थ, विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ० ११
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