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________________ ८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रशस्त भी हो, वह साधक को आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ने से रोकता है। अनन्तज्ञान (केवलज्ञान) के शिखर पर आरूढ़ होने नहीं देता। वह वीतरागता का अवरोधक है। द्वेष तो सर्वथा हेय है ही, राग भी अन्ततोगत्वा हेय है, इस तथ्य को साधक के मन-मस्तिष्क में ठसाने के लिए रागबन्ध और द्वेषबन्ध अथवा प्रेयबन्ध और द्वेषबन्ध के विचित्र रूप बताकर उनसे बचने का संकेत किया है। १ मिथ्यात्व के प्रबल बन्धन को तोड़ने के लिए ग्रन्थिभेद का उपाय मोहनीय कर्म सभी कर्मों का राजा है, प्रबल है, और घातीकर्मों का सिरमौर है। उसका बन्ध तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम कैसे-कैसे और किस-किस गुणस्थान में कितना-कितना होता है ? तथा मोहनीय कर्म की दर्शनमोह और चारित्रमोह, ये दो प्रधान शक्तियाँ हैं। ये साधक की आत्मा पर, साधक की स्वाभाविक आत्मशक्तियों पर जबरन कैसे-कैसे पर्दा डालती हैं, किस प्रकार कुण्ठित और विकृत कर डालती हैं ? तथा सर्वप्रथम दर्शनमोह के द्वारा होने वाले मिथ्यात्व के जबर्दस्त बन्ध को तोड़कर अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान तक पहुँचने के लिए साधक यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की घाटियों को कैसे पार कर सकता है और मिथ्यात्व के चक्रव्यूह का भेदन करके सम्यक्त्व के राजमहल में कैसे पहुँच पाता है ? इसका सजीव वर्णन मुमुक्षु आत्मार्थी साधक की हृदयतंत्री को झकझोर कर जाग्रत कर देता है। वह गाढ़ बन्ध के उस दुर्ग पर विजय प्राप्त करने के लिए उत्साहित हो उठता है। २ बन्धों को बदलने का आशास्पद सन्देश इसके अतिरिक्त एक बार बधा हुआ कर्म कभी बदला नहीं जा सकता. उसकी स्थिति और फलदानशक्ति में कतई परिवर्तन नहीं हो सकता; साधकों की इस भ्रान्ति, निराशा और निरुत्साहिता को तोड़ने तथा पुरुषार्थवाद का सन्देश देने के लिए कर्मविज्ञानमर्मज्ञों ने कर्मबन्ध की १० मुख्य अवस्थाओं का विवेचन किया है। ये दस अवस्थाएं विभिन्न पहलुओं से पूर्वबद्ध कर्म को तोड़ने में हिम्मत न हारने का सन्देश देती हैं। इनमें से बन्ध की कुछ अवस्थाएं मात्र सूचक हैं कि पहले बँधे हुए कर्म को भाग्य भरोसे या प्रमादवश छोड़ देने और उसे बदलने का पुरुषार्थ न करने से उसका कितना दुःखद एवं पश्चात्तापजनक परिणाम भोगना पड़ता है? उनमें से बन्ध, उद्वर्तना, उदय, निधत्ति और निकाचना के समय बहुत ही सावधान रहने का संकेत है। शेष अपवर्तन, सत्ता, उदीरणा, संक्रमण और उपशमन, इन अवस्थाओं में साधक १. देखें-रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैतरें, लेख कर्मविज्ञान खण्ड ८ में। . २. देखें-कर्मविज्ञान खण्ड ८ में इस विषय का निबन्ध। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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