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________________ कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता ७ पंचविध भावों के द्वारा कर्मबन्ध से संयोग और वियोग का स्पष्ट निरूपण कर दिया है । १ कर्मबन्धों की चार दशाएँ: बन्धों को नापने का थर्मामीटर कर्मबन्ध होने के साथ ही उसकी डिग्रियाँ नापने के लिए एक तथ्य और स्पष्ट किया है और साधक को यह संकेत दिया है कि तुम्हारा जो कर्म बँधा है, उसे जानो कि वह स्पृष्ट कोटि का है, बद्ध कोटि का है, निधत्त कोटि का है या निकाचित कोटि का है ? यदि निधत्त और निकाचित कोटि का है तो उस बन्ध में परिवर्तन. होने, यानी अशुभ को शुभ में अथवा शुभ को अशुभ में बदलने, अथवा उस बन्ध की अपनी सजातीय उत्तरप्रकृति में रूपान्तरण, उदात्तीकरण या मार्गान्तरीकरण करने की गुंजाइश नहीं है। निधत्त कोटि के बन्ध में थोड़ी-सी गुंजाइश है - अपवर्तन और उद्वर्तन की, परन्तु साधक संभले तब न ? इसलिए ईर्यापथिक आस्रव और शुद्ध बन्ध वाले महाभाग कषाय से निर्लिप्त और पूर्ण सावधानी के साथ केवल स्पृष्ट बन्ध से ही छुटकारा पा जाते हैं। यदि कोई साधक इतना सक्षम और अप्रमत्त न हुआ तो वह बद्ध कोटि का बन्ध करते समय भी सावधान रहता है कि यह बन्ध कहीं तीव्रतर, तीव्रतम कोटि का, और अशुभ (पाप) कर्म का न हो जाए। कम से कम वह मन्द, मन्दतर, मन्दतम कोटि का हो, शुद्ध और शुभ कोटि का हो। २ बन्धों की जड़ों को उखाड़ने के लिए राग द्वेषरूपी बीज न बोएं कर्मशास्त्रियों ने बन्ध की जड़ों को कुरेदने हेतु साधकों को सावधान करते हुए निर्देश किया है - बन्ध का मूल मोह है और उसके मूलस्रोत हैं - राग और द्वेष । रागबन्धन और द्वेषबन्धन दोनों ही किस-किस प्रकार विभिन्न पहलुओं से साधक की आत्मा को बाँध लेते हैं ? किस-किस प्रकार से वे चुपके से साधक के अन्तर्तम में प्रविष्ट हो जाते हैं ? साधक को अपने दैनिक कार्य-कलापों में किस प्रकार उनसे बचते रहना है ? उच्च भूमिका पर आरूढ़ न होने तक 'प्रशस्त राग' को अपनाया जा सकता है किन्तु वह भी सावधान होकर । कहीं प्रशस्त राग की ओट में सम्प्रदाय, जाति, भाषा, राष्ट्र, प्रान्त, ग्राम, नगर, संघ, संस्था आदि के प्रति अन्धराग न हो जाए; प्रकारान्तर से वह अन्य सम्प्रदाय आदि के प्रति द्वेष, घृणा, कलह, रोष, वैर- विरोध, निन्दा, अपयशकारित्व, ईर्ष्या, द्वेष आदि का रूप न ले ले। यदि ऐसा होगा तो वह प्रशस्त राग न रहकर अप्रशस्त राग पापकर्मबन्धक व पापवर्द्धक राग हो जायेगा ? साधक को कर्मशास्त्रियों ने स्पष्ट चेतावनी दी है, राग चाहे कैसा भी हो, १. पाँच भावों की प्ररूपणा के लिए देखें, कर्मविज्ञान खण्ड ८ में । २. देखें - कर्मविज्ञान खण्ड ७ में 'कर्मबन्ध की मुख्य ४ दशाएँ' निबन्ध में । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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