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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-२ २४१ हैं, इनमें से पाँच योग तो वायकाय की अपेक्षा से समझने चाहिए, क्योंकि सभी एकेन्द्रिय असंज्ञी ही होते हैं। छठा-असत्यामृषा वचनयोग द्वीन्द्रिय आदि की अपेक्षा से; क्योंकि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय, ये सभी असंज्ञी ही होते हैं। द्वीन्द्रिय आदि असंज्ञी जीव भाषा-लब्धियुक्त होते हैं, इसलिए उनमें असत्यामृषा वचनयोग होता है। -
विकलेन्द्रिय में चार योग होते हैं; क्योंकि वे वैक्रिय लब्धि सम्पन्न न होने के कारण वैक्रिय शरीर नहीं बना सकते। इसलिए उनमें असंज्ञी सम्बन्धी छह योगों में से वैक्रियद्विक (वैक्रिय काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग) नहीं होता।
मनोयोग, वचनयोग, सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र, (संयम), चक्षुर्दर्शन और मन:पर्यायज्ञान, इन ६ मार्गणाओं में कार्मण और औदारिक मिश्र को छोड़कर तेरह योग होते हैं; क्योंकि ये ६ मार्गणाएँ पर्याप्त-अवस्था में ही पाई जाती हैं, इसलिए अपर्याप्त-अवस्थाभावी दो योग-कार्मण और औदारिकमिश्र, इनमें नहीं होते। केवली भगवान् को केवलि-समुद्घात के समय ये दो योग होते हैं, मनोयोग आदि उपर्युक्त छह मार्गणाओं में से कोई भी मार्गणा नहीं होती। इसी कारण उपर्युक्त ६ मार्गणाओं में दो योगों के सिवाय, शेष १३ योग कहे गए हैं। , केवलद्विक में औदारिकद्विक, कार्मण, प्रथम तथा अन्तिम मनोयोग (सत्यमनोयोग तथा असत्यामृषा मनोयोग) और प्रथम तथा अन्तिम वचनयोग (सत्यवचनयोग तथा असत्यामृषा वचनयोग); ये ७ योग होते हैं। जो सयोगी केवली होते हैं, उनको औदारिक काययोग तो सदा ही रहता है। औदारिकमिश्र काययोग . होता है-केवलिसमुद्घात के दूसरे, छठे और सातवें समय में, तथा कार्मण काययोग होता है-तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में। एवं दो मनोयोग होते हैं-किसी के प्रश्न का मन से उत्तर देने के समय। मन से उत्तर देने का अभिप्राय यह है कि जब कोई अनुत्तरविमानवासी देव या मनःपर्यायज्ञानी अपने स्थान में रहते हुए मन से ही केवली भगवान् से कोई प्रश्न करते हैं, तब उनके प्रश्न को केवलज्ञान से जानकर केवली भगवान् उसका उत्तर मन से ही देते हैं। अर्थात्-मनोद्रव्य को ग्रहण कर उसकी ऐसी रचना करते हैं कि अवधिज्ञान या मनःपर्यायज्ञान द्वारा देख (जान) कर प्रश्नकर्ता केवली भगवान् के द्वारा दिए गए उत्तर को अनुमान द्वारा जान लेते हैं। यद्यपि मनोद्रव्य बहुत ही सूक्ष्म है, तथापि अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान में उसका प्रत्यक्ष ज्ञान कर लेने की शक्ति है। जैसे कोई मानसशास्त्रज्ञ किसी के चेहरे पर होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को देखकर उसके मनोगत भावों को अनुमान द्वारा जान लेता है, कि
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