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२४० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ ___ उपशम-सम्यक्त्व में चार मन के, चार वचन के, औदारिक और वैक्रिय शरीर, ये १० योग पर्याप्त अवस्था में पाये जाते हैं। कार्मण और वैक्रियमिश्र. ये दो योग अपर्याप्त-अवस्था में देवों की अपेक्षा से समझ लेने चाहिए । जिस समय उपशमश्रेणि से गिरने वाले जीव मरकर अनुत्तरविमान में उपशम-सम्यक्त्व युक्त जन्म लेते हैं, उनके मत से अपर्याप्त देवों में उपशम-सम्यक्त्व के समय उक्त दोनों योग पाये जाते
उपशम-सम्यक्त्व में औदारिक-मिश्रयोग गिना है, वह सैद्धान्तिक मतानुसार जानना चाहिए; कार्मग्रन्थिक मतानुसार नहीं। कर्मग्रन्थीय मतानुसार पर्याप्त अवस्था में केवली के सिवाय अन्य किसी को वह योग नहीं होता। अपर्याप्त-अवस्था में मनुष्यतिर्यश्च को होता तो है, पर उन्हें उस अवस्था में किसी तरह का उपशम-सम्यक्त्व नहीं होता। सैद्धान्तिक मतानुसार उपशम-सम्यक्त्व में औदारिकमिश्र योग घट सकता है, क्योंकि वे वैक्रिय शरीर की रचना के समय वैक्रियमिश्रयोग न मानकर
औदारिकमिश्रयोग मानते हैं। देवगति और नरकगति में विरति न होने से दो आहारक योगों का होना सम्भव नहीं है। इसलिए इन ४ योगों के सिवाय शेष ११ योग उक्त दो गतियों में कहे गए हैं।१ . -
स्थावरकाय में कार्मण और औदारिकद्विक , ये तीन योग कहे गए हैं, वे वायुकाय के सिवाय अन्य चार प्रकार के स्थावरों में समझने चाहिए, क्योंकि वायुकाय में उक्त तीन तथा वैक्रियद्विक, ये पाँच योग सम्भव हैं, तीन योगों में से कार्मण काययोग विग्रहगति में तथा उत्पत्ति-समय में, और औदारिक मिश्र उत्पत्ति समय को छोड़कर शेष अपर्याप्त काल में एवं औदरिक काययोग पर्याप्त अवस्था में समझना चाहिए। वायुकाय में भी तीन योग तो ये ही होते हैं। शेष दो योग (वैक्रियद्विक) के अधिकारी वे ही वायुकायिक जीव होते हैं, जो वैक्रिय लब्धिसम्पन्न हों। वैक्रिय शरीर बनाते समय वैक्रियमिश्रकाययोग होता है, और बना चुकने के बाद उसे धारण करते समय होता है-वैक्रिय काययोगरे । असंज्ञी में छह योग होते १. (क) देखें चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. २६ का विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ० ९७-९८ (ख) विउवग्गाहारे उरलमिस्सं
-वही, भा. ४, गा. ४९ .२. (क) इस तथ्य का समर्थन प्रज्ञापचासूत्र की चूर्णि में है।
-संपादक (ख) तिण्हं ताव रासीणं वेउव्विअलद्धी चेव नत्थि।
बादरपज्जत्ताणं पि संखेजइ भागस्स त्ति ॥ -पंचसंग्रह द्वार १ की टीका में उद्धृत अर्थ-अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एवं अपर्याप्त बादर, इन तीन प्रकार के वायुकायिकों
में वैक्रियलब्धि है ही नहीं, केवल पर्याप्त बादर वायुकाय में है, वह भी सब में नहीं, सिर्फ उसके असंख्यातवे भाग में है।
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