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________________ २२० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कषाय की उपशान्ति तथा वीतराग भाव सम्पादन करने की अनुकूलता हो जाती है, शंख के समान ऐसा श्वेतवर्णीय लेश्या जातीय पुद्गलों के संसर्ग से होता है। (११) भव्यत्व-मार्गणा के भेदों का स्वरूप भव्य-भव्य वें हैं, जो अनादि तादृश-पारिणामिक-भाव के कारण मोक्ष को पाते हैं या पाने की योग्यता रखते हैं। अभव्य-जो अनादि तथाविध पारिणामिक भाव के कारण किसी भी समय मोक्ष को पाने की योग्यता नहीं रखते, वे अभव्य हैं। भव्य जीवों में से कुछ ऐसे होते हैं, जो अतिशीघ्र मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। कुछ बहुत काल के पश्चात् मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं, जो मोक्षप्राप्ति की योग्यता रखते हुए भी उसको प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उन्हें ऐसी अनुकूल सामग्री नहीं मिल पाती है, जिससे कि वे मोक्ष प्राप्त कर सकें। जैसे-किसी मिट्टी में सोने का अंश तो है, परन्तु अनुकूल साधन न मिलने से सोने का अंश प्रकट नहीं हो पाता है। भव्यों के उपर्युक्त तीनों प्रकारों को शास्त्र में क्रमशः आसन्नभव्य, दूरभव्य और जातिभव्य कहा गया है। दिगम्बर परम्परा में जातिभव्य को 'अभव्य-सम-भव्य' कहा है। (१२) सम्यक्त्व-मार्गणा के भेद और उनका स्वरूप सम्यक्त्वमार्गणा के ६ भेद हैं-(१) औपशमिक, (२). क्षायोपशमिक, (३) क्षायिक, (४) सास्वादन (सासादन), (५) मिश्र और (६)मिथ्यात्व। १. (क) लेश्याओं के विशद ज्ञान के लिए उत्तराध्ययन सूत्र का ३४वाँ लेश्या अध्ययन तथा प्रज्ञापना सूत्र का १७वाँ लेश्यापद देखिये। उनमें लेश्याओं के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का विस्तृत विवेचन है। -सं. (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में ६ लेश्याओं के वर्ण क्रमशः भ्रमर, नीलमणि, कबूतर, सुवर्ण, कमल एवं शंख के समान बताये गए हैं। -गा. ४९५ (ग) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १३ का विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. ३३, ३४ (घ) किण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा य सुक्क भव्वियरा। वेयग-खइगुवसम-मिच्छ-मीस-सासाण सन्नियरे॥ -कर्मग्नन्थ भा. ४, गा.१३ । २. (क) भव्यः मुक्तिगमनार्ह :, अभव्यः कदाचनाऽपि मुक्तिगमनानार्हः। __ -वही गा. १२ स्वो. टी. पृ. १३८ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. १३ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. १३२ ।। (ग) प्रज्ञापना पद १८ टीका, तथा भगवती, श. १२ के द्वितीय जयन्ती नामक अधिकार में देखें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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