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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-१ २११ करता-जान लेता है,वह अवधिज्ञान कहलाता है। अवधिज्ञान का विषय रूपी (मूर्त) पदार्थ हैं।
मनःपर्यायज्ञान-संज्ञी जीवों की, मन की पर्यायों-चिन्तनगत परिणामों को जानना मनःपर्यायज्ञान है। इस ज्ञान के होने में भी इन्द्रिय और मन की सहायता की नहीं, किन्तु आत्मा के असाधारण गुण ज्ञान के आवरणभूत ज्ञानावरणीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम की अपेक्षा होती है।
केवलज्ञान-ज्ञानावरणीय कर्म का नि:शेष (पूर्ण) रूप से क्षय हो जाने पर जिसके द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्य त्रैकालिक सब तस्तुएँ जानी जाती हैं उसे केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान परिपूर्ण अव्याघाती, असाधारण, अनन्त, स्वतंत्र और अनन्तकाल-स्थायी एवं केवल एक, असहायी ज्ञान होता है। केवलज्ञान का प्रादुर्भाव क्षयोपशमजन्य मति, श्रुत, अवधि, और मनःपर्याय इन छाद्मस्थिक ज्ञानों के क्षय होने पर होता है।
मति-अज्ञान-मिथ्यात्व के उदय से तथा इन्द्रिय मन से होने वाले विपरीत उपयोग को मतिअज्ञान कहते हैं। .
श्रुत-अज्ञान-मिथ्यादर्शन के उदय से सहचरित श्रुतज्ञान को अज्ञान कहते हैं। जैसे-चौर्यशास्त्र, कामशास्त्र, हिंसाशास्त्र आदि हिंसादि आपत्तिजनक पापकर्मों के विधायक या निर्देशक-प्रेरक तथा अयथार्थतत्त्व-प्रतिपादक ग्रन्थ कुश्रुत कहलाते हैं, . उनका ज्ञान श्रुत-अज्ञान कहलाता है। • अवधि-अज्ञान (विभंगज्ञान)-रूपी पदार्थों के मर्यादित द्रव्यादिरूप से जानने वाले अवधिज्ञान को मिथ्यात्व के उदय से विपरीत रूप में जानना अवधि-अज्ञान या विभंगज्ञान है। . ..
. सम्यग्दृष्टि के ज्ञान को ज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह प्रत्येक वस्तु को अनेकान्तदृष्टि से देखता है, उसका ज्ञान हेय-ज्ञेय-उपादेय की बुद्धि से युक्त होता है, किन्तु मिथ्यादृष्टि का ज्ञान व्यवहार में ससीचीन होने पर भी वस्तु को एकान्त दृष्टि से जानने वाला, कदाग्रही तथा हेयोपादेय-विवेकरहित होता है। मनःपर्याय और केवल, ये दो ज्ञान सम्यक्त्व के सद्भाव में ही होते हैं, अतएव ये दोनों अज्ञानरूप नहीं होते। ___ मतिज्ञान आदि आठ प्रकार के ज्ञान साकार कहलाते हैं, क्योंकि वे वस्तु के प्रतिनियत आकार को विशेष को-ग्रहण करते हैं। १. (क) वेय नरित्थि-नपुंसा, कसाय कोह-मय-माय-लोभ त्ति। .. मइ-सुयऽवहि-मण-केवल-विभंग-मइ-सुअ-नाण सागारा॥११॥
-चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ११ __ (शेष पृष्ठ २१२ पर)
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