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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-१ २०९ वेद के दो प्रकार हैं-द्रव्यवेद और भाववेद। उपर्युक्त लक्षण भाववेद के हैं। द्रव्यवेद का निर्णय बाह्य चिन्हों से किया जाता है। पुरुष के चिन्ह दाढ़ी, मूंछ आदि, स्त्री के चिन्ह दाढ़ी-मूंछ आदि का अभाव और स्तन आदि हैं; तथा नपुंसक में स्त्रीपुरुष दोनों के कुछ चिन्ह होते हैं। द्रव्यवेद का निर्माण शरीर और अंगोपांग नामकर्मजन्य होता है, जबकि भाववेद मोहनीय कर्म के भेद वेद-नोकषाय मोहनीयकर्मजन्य होता है। द्रव्यवेद और भाववेद में प्रायः समानता होती है, लेकिन कहींकहीं विषमता भी पाई जाती है। अर्थात्-बाह्य शरीर, आकृति या चिन्ह पुरुष के होते हैं, मगर भाव स्त्री या नपुंसक जैसे होते हैं। प्रज्ञापनासूत्र भाषापद की टीका में इसकी द्रव्य-भाव-वेदपरक व्याख्या की गई है। (६) कषाय-मार्गणा के भेद और उनका स्वरूप कषाय-मार्गणा के मुख्य चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। यहाँ काषायिक शक्ति के तीव्र-मन्द आदि भावों की अपेक्षा से कषाय चतुष्टय के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी एवं संज्वलन, ये प्रत्येक के चार-चार प्रकार न बतलाकर जाति की अपेक्षा से सिर्फ क्रोधादि चार भेद किये गए क्रोध-अन्तर् में परम उपशमरूप अनन्त गुणयुक्त आत्मा में सकारण या अकारण सजीव या अजीव पदार्थों के प्रति असहिष्णुता के कारण क्षोभ, रोष, प्रकोप, आवेश, क्रूरता या क्रूरपरिणाम उत्पन्न होता है, जो स्व-पर का उपघात या अनुपंकार आदि करने वाला होता है, वह क्रोध कहलाता है। मान-जाति, कुल, बल, श्रुत, तप, लाभ, ऐश्वर्य आदि के अहंकार के कारण दूसरों के प्रति तिरस्कारयुक्त वृत्ति हो, नमने की वृत्ति न हो या छोटे-बड़े के प्रति १. (क) नरस्य पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाषो नरवेदः। स्त्रियः योषितः पुरुषं प्रत्यभिलाषः स्त्रीवेदः। . नपुंसकस्य षण्ढस्य स्त्री-पुरुषौ प्रत्यभिलाषो नपुंसकवेदः। -चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टी. पृ. १२९ (ख) योनिर्मदुत्वमस्थैर्य, मुग्धता क्लीबता स्तनौ। पुंस्कामितेति लिंगानि , सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥१॥ मेहनं खरता दायं, शोण्डीर्यं श्मश्रुधृष्टता। स्त्रीकामितेति लिंगानि सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते॥२॥ स्तनादिश्मश्रुकेशादि भावाभाव-समन्वितम्। नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम्॥३॥ ___ -प्रज्ञापना. भाषापद टीका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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