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२०८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
(४) योगमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप योगमार्गणा के तीन भेद हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग।
मनोयोग-जीव के उस व्यापार को मनोयोग कहते हैं, जो औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर द्वारा ग्रहण किये हुए, मनो-प्रायोग्य वर्गणा (मनोद्रव्य समूह) की सहायता से होता है। अथवा मनोवर्गणा से निष्पन्न द्रव्यमन के अवलम्बन से जीव का जो संकोच-विकोच होता है, वह मनोयोग है। वचनयोग-जीव के उस व्यापार को वचनयोग कहते हैं, जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक शरीर की क्रिया द्वारा संचय किये हुए भाषाद्रव्य की सहायता से होता है, अथवा भाषावर्गणा के पुद्गल स्कन्धों का अवलम्बन लेकर जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच होता है, वह वचनयोग है। काययोग-शरीरधारी आत्मा की शक्ति (वीर्य) के व्यापार-विशेष को काययोग कहते हैं।
यद्यपि मनोयोग और वचनयोग के अवलम्बनभूत मनोद्रव्य तथा भाषाद्रव्य का ग्रहण किसी प्रकार के कायिकयोग से ही होता है, इसलिए मनोयोग और वचनयोग भी काययोग से पृथक् नहीं है, तथापि जब काययोग मनन करने में सहायक होता है, तब वह मनोयोग माना जाता है, और जब काययोग भाषा बोलने में सहकारी होता है, तब वह वचनयोग कहलाता है किन्तु काययोग की सहायता से होने वाले भिन्नभिन्न व्यापारों के व्यवहार के लिए उसके मनोयोग, वचनयोग और काययोग, ये तीन भेद किये जाते हैं।
(५) वेद-मार्गणा के भेद और उनका स्वरूप वेद मार्गणा के तीन भेद्र हैं-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद। स्त्री के संसर्ग की अभिलाषा को पुरुषवेद, पुरुष के संसर्ग की अभिलाषा को स्त्रीवेद और स्त्रीपुरुष दोनों के संसर्ग की अभिलाषा को नपुंसकवेद कहते हैं। १. (क) तनुयोगेन मनः प्रायोग्य-वर्गणाभ्यो गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणामितानि
वस्तु-चिन्ता-प्रवर्तकानि द्रव्याणि मन इत्युच्यन्ते, तेन मनसा सहकारिकारण
भूतेन योगो मनोयोगः। -चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका पृ. १२८ (ख) मण-वग्गणादो-णिप्पण-दव्वमणमवलंबिय जीव पदेसाणं संकोच-विकाचो सो मणजोगो॥
-धवला टीका ७/२, १, ३३/७६ (ग) उच्यते इति वचनं, भाषा-परिणामापन्नः पुद्गल:समूहः इत्यर्थः। तेन वचनेन सहकारि-कारणभूतेन योगो वचनयोगः।।
. -चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका पृ. १२८ (घ) भासावग्गणा पोग्गलखंधे अवलंबिय जीवपदेसाणं संकोच-विकाचो सो वचिजोगो णाम।
-धवला ७/२/१/३३/७६
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