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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण - १ २०५
(१४) आहारकत्व - शरीरनामकर्म के उदय से शरीर, वचन और द्रव्यमनोरूप बनने योग्य नोकर्म-वर्गणा का जो ग्रहण होता है, उसे आहार कहते हैं । अथवा ओज - आहार, लोम-आहार, कवलाहार आदि में से किसी न किसी आहार को ग्रहण करना आहारकत्व है। अथवा औदारिक आदि तीन शरीर तथा आहार, शरीर आदि पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को आहार कहते हैं, आहरण करना आहारकत्व है।
इन चौदह मार्गणाओं के लक्षणों को जानने से यह स्पष्ट है कि इन चौदह भेदों द्वारा संसारी जीवों में विद्यमान स्वाभाविक- वैभाविक ( कर्मोपाधिक) विभिन्नताओं का बोध हो जाता है; सर्वेक्षण भी स्थूलरूप से हो जाता है।
मूल में मार्गणाओं के चौदह भेद हैं, लेकिन संसारी जीवों में विद्यमान विभिन्नताएँ इन चौदह प्रकार की विभिन्नताओं में परिसमाप्त नहीं होतीं । वे विभिन्नताएँ मार्गणाओं के प्रत्येक प्रकार के अनेक भेदों को लेकर अनेक प्रकार की हैं। कोई मनुष्य है तो कोई तिर्यञ्च, तो कोई देव है तो कोई नारक योनि का शरीर धारण किये हुए है। गति की अपेक्षा विद्यमान विभिन्नताओं की तरह इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान आदि से जनित विभिन्नताएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं। इसलिए उन अनेक प्रकार की १. ( क ) ओज - आहार - लोमाहार- कवलाहाराणामन्यतममाहारमाहारयति गृण्हातीत्याहारः । - चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वो. टीका. पृ. १२८
(ख) णोकम्म- कम्महारो-कवलाहारो य लेप्पमाहारो । ओज-मणोवि य कमसो आहारो छव्विहो णेयो ॥
- प्रमेयकमल मार्तण्ड, द्वितीय परिच्छेद
( दि.. परम्परा में) नोकर्माहार, कर्माहार, कंवलाहार, लेप्याहार, ओजाहार और मानसाहार, ये आहार के क्रमश: छह भेद हैं।)
(ग) सरीरेणोयाहारो तयाइ फासेण लोम- अहारो ।
. पक्खेवाहारो पुण कवलिओ होइ नायव्वो ॥
(गर्भ में उत्पन्न होने के समय जो शुक्र- शोणितरूप आहार कार्मण- शरीर द्वारा लिया जाता है, वह ओज - आहार; स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) द्वारा जो ग्रहण किया जाता है, वह लोम - आहार; और जो अन्न आदि खाद्य पदार्थ मुख द्वारा पेट में डाला जाता है, वह प्रक्षेपाहार = कवलाहार कहलाता है।)
- प्रवचन - सारोद्धार गा. १९८० टीका (घ) गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ६६४ : उदयावण्ण. सरीरोदएण तद्देहवयण-चित्ताणं कम्म-वग्गणाणं गहण आहारयं णाम ॥
(ङ) चौदह मार्गणाओं के लक्षण लिए देखें- चतुर्थ कर्मग्रन्थ, विवेचन ( मरुधर केसरी) पृ. १०० तथा (पं. सुखलालजी) पृ. ४७ से ५०
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