SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ (१०) लेश्या - जिस परिणाम द्वारा आत्मा कर्मों के साथ श्लिष्ट होता है, चिपकता है, उसे लेश्या कहते हैं । अथवा कषायोदय से अनुरंजित योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। (११) भव्यत्व - मोक्ष पाने की योग्यता - प्राप्ति को भव्यत्व कहते हैं । अथवा जो जीव सिद्धि के योग्य हैं, यानी जिन जीवों की सिद्धि-मुक्ति कभी होने वाली हो वे भव्य तथा इसके विपरीत, जिनकी कभी संसार से मुक्ति या सिद्धि नहीं होगी, वे अभव्य हैं । २ (१२) सम्यक्त्व - वीतराग - प्ररूपित पांच अस्तिकाय, छह द्रव्य तथा नौ तत्त्वों (पदार्थों) पर आज्ञापूर्वक या अधिगमपूर्वक ( प्रमाण -नय-निक्षेप द्वारा) श्रद्धा करना सम्यक्त्व है । अथवा मोक्ष के अविरोधी आत्मा के परिणाम को सम्यक्त्व कहते हैं । जीवादि तत्त्वभूत पदार्थों का वीतरागदेव ने जैसा कथन किया है, उसी प्रकार से, विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। वह प्रशम, संवेग आदि पांच लक्षणों से युक्त है । ३ (१३) संज्ञित्व-दीर्घकालिकी संज्ञा की प्राप्ति को संज्ञित्वं कहते हैं। या भूत, भविष्य - वर्तमान भाव - स्वभाव का पर्यालोचन जिनमें विद्यमान हो, उन्हें संज्ञी कहते हैं। अथवा नोइन्द्रियावरण (मन के आवरण) के क्षयोपशम को या तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं, इस संज्ञा के धारक को संज्ञी कहते हैं, इसके विपरीत जिसको द्रव्यमन के सिवाय अन्य इन्द्रियों से ज्ञान होता है, उसे असंज्ञी कहते हैं । ४ १. (क) लिश्यते श्लिष्यते कर्मणा सहाऽत्माऽनमेति लेश्या । (ख) गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ४८८ २. (क) भवति परमपदयोग्यतामासादयतीति भव्यः सिद्धिगमन योग्यः । - कर्मग्रन्थ भा. ४ स्व. टी. पृ. १२७ (ख) गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ५५६ - चतुर्थकर्मग्रन्थ स्वो. टीका. पृ. १२७ ३. (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ५६० (ख) प्रशस्तो मोक्षाविरोधी वा प्रशम-संवेगादिलक्षण आत्मधर्मः इति । - चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वो. टी. पृ. १२७ (ग) तस्मात् सम्यग्दर्शनमात्म-परिणामः श्रेयोऽभिमुखमध्यवसायः । - तत्त्वार्थ- अ. १.सू.२, राज. १६. ४. (क) संज्ञानं संज्ञा - भूत-भवद् - भावि - भाव - स्वभाव-पर्यालोचनं, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः ॥ - चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वो. टी. पृ. १२७ (ख) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा. ६५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy