________________
'२०२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ जातिनामकर्म के अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की (कर्मजन्य वैभाविक) पर्याय को काय कहते हैं।
(४) योग-वीर्य-शक्ति के जिस परिस्पन्द से-आत्मिक प्रदेशों की हलचल से, आत्मा की चिन्तन, वचन, गमन, भोजन आदि क्रियाएँ होती हैं वह योग है। तथा शरीर, भाषा और मनोवर्गणा के पुद्गलों की सहायता से होने वाला परिस्पन्द योग कहलाता है अथवा पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन-काययुक्त जीवों की कर्मग्रहण करने की शक्ति को भी योग कहते हैं।
(५) वेद-जिससे इन्द्रियजन्य संयोगज सुख का वेदन किया जाय। अथवा वेदमोहनीयकर्म के उदय से ऐन्द्रिय-रमण करने या संभोगजन्यसुख की अभिलाषा को वेद कहते हैं। अथवा वेदमोहनीय की उदीरणा से होने वाले जीव के परिणामों का सम्मोह (चंचलता), जिससे जीव को गुण-दोष का विवेक नहीं रहता, उसे वेद कहते है।
(६) कषाय-किसी पर राग व किसी पर द्वेष करना इत्यादि मानसिक विकार, जो संसारवृद्धि के कारण हैं, तथा जो कषायमोहनीय के उदयं-जन्य हैं, उन्हें कषाय कहते हैं। अथवा जो आत्मगुणों को कषे-नष्ट करे, या कष यानी संसार की आय-वृद्धि करे, जिससे संसाररूपी विस्तृत सीमा वाले कर्मरूपी क्षेत्र का कर्षण
१. (क) जं णिरय-तिरिक्ख-मणुस्स-देवाणं णिव्वत्तयं कम्मं तं गदिणाम।.
-धवला १३/५/२०१/३१३ (ख) इन्दतीति इन्द्र आत्मा। तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरण-क्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धि-लिंगं तदिन्द्रस्यलिंगमिन्द्रियित्युच्यते।
___ -सर्वार्थसिद्धि १/१४ (ग) आत्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाऽधिगमे लिंगमिन्द्रियम्।
-वही १/१४ (घ) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. ९ विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. ४८ २. (क) युज्यते धावन-वल्गनादि-चेष्टास्वात्माऽनेनेतियोगः।
-कर्मग्रन्थ भा. ४ स्थोपज्ञ वृत्ति पृ. १२७ (ख) पुग्गल विवाइदेहोदएण मण-वयण-काय. जुत्तस्स।
जीवस्स जाह सत्ती, कम्मागमकारणं जोगो॥ -गोम्मट. जी. गा. २१५-२१६ ३. (क) वेद्यतेऽनुभूयत इन्द्रियोद्भूतं सुखमनेनेति वेदः।
-चतुर्थर्मग्रन्थ स्वो. टीका. पृ. १२७ (ख) वेयस्सोदीरणाए परिणामस्स या हवेज संमोहो।
संमोहेण ण जाणादि जीवो हि गुणं वा दोसं वा॥ -गो. जीव. गा. २७२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org