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________________ १९८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ लौकिक की तरह लोकोत्तर पदार्थों का चतुरंगी मार्गणा - कथन 'धवला' में यह तथ्य स्पष्ट रूप से प्रश्नोत्तर रूप में प्रस्तुत किया गया है - लोक में यानी व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय तो निम्नोक्त चार प्रकार से अन्वेषण (सर्वेक्षण) किया जाता है, यथा- मृगयिता ( सर्वेक्षण - मार्गणअन्वेषणकर्त्ता), मृग्य (जिस चीज का अन्वेषण - सर्वेक्षण करना है वह), मार्गण (अन्वेषणकर्त्ता को अन्वेषण करने में सहायक - आधारभूत माध्यम) और मार्गणोपाय (अन्वेषण करने के उपाय ) । परन्तु यहाँ लोकोत्तर पदार्थ (आध्यात्मिक यात्रा विषयक कर्ममुक्ति के सार्वजनिक मार्ग) की विचारणा करने में उक्त चारों प्रकार तो पाये नहीं जाते, अतः मार्गणा का कथन करना लोकोत्तर मार्ग के विषय में कैसे बन सकता है? इसका समाधान यह है कि लौकिक की तरह यहाँ लोकोत्तरमार्ग में मार्गणा सम्बन्धी चारों प्रकार पाये जाते हैं । वे इस प्रकार हैं- जीवादि तत्त्वों- पदार्थों के प्रति श्रद्धालु आत्मार्थी भव्य पुण्डरीक मृगयिता है, अर्थात् भव्य मुमुक्षु एवं जिज्ञासु जीवरूपी इंजीनियर अन्वेषक - सर्वेक्षक है। चौदह गुणस्थानों तथा गति,, इन्द्रिय आदि विभिन्न अवस्थाओं से युक्त संसारी जीव ही मृग्य है - सर्वेक्षणीय है। जो इस मृग्य (विविध रूपों में अन्वेषणीय संसारी जीव ) के आधारभूत हैं, अर्थात्-मृगयिता जिन प्ररूपणीय विषयों के माध्यम से अन्वेषण कर सकता है, अथवा जो गति, इन्द्रिय आदि सहायक, माध्यम या आधारभूत हैं, वे मार्गणा हैं। तथा पहले जिन्होंने केवलज्ञान के प्रकाश में मार्गणीय विषयों की मार्गणा का अनुभव किया है, वे तीर्थंकर, गणधर उनके अनुगामी स्थविर, आचार्य, उपाध्याय, साधुसाध्वी आदि तथा जिन शिष्यों ने मार्गणा का अभ्यास किया है, जो मार्गणा करने में सिद्धहस्त हैं, ये और ऐसे महानुभाव मार्गणा के उपाय या मार्गदर्शक हैं । १ यहाँ मृगयिता मुमुक्षु जीवरूपी इंजीनियर को संसारी जीवों की आध्यात्मिक यात्रा के लिए मार्ग का अन्वेषण - सर्वेक्षण करने के लिए चार गति रूप चार मार्ग का विचार करना पड़ेगा कि वे संसार के मार्ग हैं या मोक्ष के ? सिद्धिगति पंचम गति है, जो कर्मरहित है। इसी प्रकार यह भी देखना होगा कि मार्ग में कहाँ कषायों की घाटियाँ हैं ? कहाँ घातिकर्म रूपी पर्वत हैं? कहाँ-कहाँ कौन-सी लेश्यारूपी नदी है ? १. 1 44 'अथ स्याज्जगति चतुर्भिर्मार्गणा निष्पद्यमानोपलभ्यते । तद्यथा - मृगयिता, मृग्यं, मार्गणं, मार्गणोपाय इति। नाऽत्र ते सन्ति नैष दोष:, तेषामप्यत्रोपलम्भात् । तद्यथा - मृगयिता भव्य - पुण्डरीकः तत्त्वार्थ- श्रद्धालु र्जीवः ; चतुर्दश-गुणस्थान - विशिष्टजीवा मृग्यं, मृग्यस्याधारतामास्कन्दन्ति मृगयितुः करणतामादधानानि वा गत्यादीनि मार्गणम्, विनेयोपाध्यायादयो मार्गणोपाय इति । " - धवला १/१,१,४/१३३; गो. जी. (जी. प्र.) २/११/१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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