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________________ जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १९१ कर्मों का बन्धस्थान : स्थिति और गुणस्थान-प्ररूपणा ___ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के चार बन्ध-स्थान हैं-सात कर्म का, आठ कर्म का, छह कर्म का और एक कर्म का। इन चारों बन्धस्थानों में से ७ कर्मों का बन्धस्थान उस समय पाया जाता है, जिस समय आयु का बन्ध नहीं होता। एक बार आयु के बन्ध हो जाने के पश्चात् दूसरी बार उसका बन्ध होने में जघन्यकाल-अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण और उत्कृष्टकाल-अन्तर्मुहूर्त कम १/३ करोड़ पूर्व वर्ष, तथा छह मास कम तेतीस सागरोपम-प्रमाण काल चला जाता है। अतएव सात कर्मों के बन्धस्थान की स्थिति भी पूर्वोक्त काल-प्रमाण जितनी ही समझनी चाहिए। आठ कर्मों का बन्धस्थान आयुकर्म के बन्ध के समय पाया जाता है। आयुबन्ध जघन्य या उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक होता है। अतएव आठ कर्मों के बन्धस्थान की भी जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समझनी चाहिए। छह कर्मों का बन्धस्थान दसवें गुणस्थान में ही पाया जाता है, क्योंकि उसमें आयु और मोहनीय, इन दो कर्मों का बन्ध नहीं होता है। इस बन्धस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति दसवें गुणस्थान के बराबर है, अर्थात् जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण है। एक कर्म का बन्धस्थान ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें, तीन गुणस्थानों में होता है। इसका कारण यह है कि इन गुणस्थानों के दौरान सातावेदनीय कर्म के सिवाय अन्य कर्म का बन्ध नहीं होता। ग्यारहवें गुणस्थान की जघन्य स्थिति एक समय की और तेरहवें गुणस्थान की उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष कम करोड़पूर्व वर्ष की होती है। अतएव इस बन्धस्थान की जघन्य स्थिति एक समय मात्र की और उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष कम करोड़ पूर्व वर्ष की समझनी चाहिए। १. (क) नौ समयप्रमाण, दस समयप्रमाण, यों एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते अन्त में एक समय कम मुहूर्त प्रमाण, यह सब प्रकार का काल अन्तर्मुहूर्त कहलाता है। जघन्य अन्तर्मुहूर्त ९ समय का, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त एक समय कम मुहूर्त का और मध्यम अन्तर्मुहूर्त १०, ११ समय आदि बीच के सब प्रकार के काल का समझना चाहिए। -सं. (ख) दस कोटाकोटि पल्योपम का एक सागरोपम और असंख्य वर्षों का एक पल्योपम होता है। चौरासी लक्ष वर्ष का एक पूर्वांग और और ८४ लक्ष पूर्वांग का एक पूर्व होता है। -तत्त्वार्थसूत्र अ-४ सू. १५ का भाष्य (ग) जिन प्रकृतियाँ का बन्ध एक साथ (युगपत्) हो, इनके समुदाय को बन्धस्थान, जिन प्रकृतियों की सत्ता एक साथ पाई जाए, उनके समुदाय को सत्तास्थान, (शेष पृष्ठ १९२ पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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