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१९० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ सात कर्मों की और उससे पूर्व आठ कर्मों की उदीरणा सम्भव है। किन्तु करणअपर्याप्त जीवों की अपर्याप्त दशा में मृत्यु होने का नियम नहीं है। यदि वे लब्धिपर्याप्त हुए तो पर्याप्त अवस्था में ही मृत्यु होती है। इसलिए उनके अपर्याप्तदशा में आवलिकामात्र आयु शेष रहना और सात कर्मों की उदीरणा का होना शक्य नहीं है।
तेरह जीवस्थानों में सत्ता और उदय आठ ही कर्मों का सम्भव पूर्वोक्त तेरह जीवस्थानों में यद्यपि बन्ध और उदीरणा सात या आठ कर्मों की बतलाई है, किन्तु सत्ता और उदय के लिए यह नियम नहीं है। सत्ता और उदय तो आठ ही कर्मों का होता है। इसका कारण यह है कि सामान्यतया आठ कर्मों की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक होती है, जबकि उदय दसवें गुणस्थान तक होता है। परन्तु पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के सिवाय शेष १३ जीवस्थानों में अधिक से अधिक पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान सम्भव हैं। इसीलिए इन तेरह जीवस्थानों में आठों ही कर्मों की सत्ता और उदय माने जाते हैं।२
१. (क) सत्तट्ठ छेगबंधा संतुदया सत्त-अट्ठ-चत्तारि।
सत्तट्ठ-छ-पंच-दुर्ग, उदीरणा संनिपज्जत्ते॥ -चतुर्थ,कर्मग्रन्थ, गा. ८ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. ८ का विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ८६, ८७ (ग) त्रयोदशसु जीवस्थानेषु सप्तानामष्टाना वा बन्धः सप्तानामष्टानां वा
उदीरणाः। तथाहि-यदाऽनुभूयमान भवायुषस्त्रिभाग-नवमभागादि रूपे शेष सति परभवायुर्बध्यते, तदाऽष्टानामपि कर्मणां बन्धः, शेष काले त्वायुषो बन्धाभावात् सप्तानामेव बन्धः। तथा यदाऽनुभूयमान-भवायुरुदयावलिकाऽवशेषं भवति, तदा सप्तानामुदीरणा, अनुभूयमान-भवायुषोऽनुदीरणात, आवलिकाशेषस्योदीरणाऽनर्हत्वात्। उदीरणा हि उदयावलिका-बहिर्वर्तिनीभ्यः स्थितिभ्या सकाशात् कषाय-सहितेन कषायरहितेन वा योगकरणेव दलिकामाकृष्य उदय
समय प्राप्त-दलिकेन सहाऽनुभवनम्। -चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका पृ. १२४ (घ) आशय-उदयावलिका के बाहर की स्थिति वाले कर्मदलिकों को कषायसहित
या कषायरहित योग द्वारा खींचकर उदयप्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है।
_ -कर्मप्रकृति चूर्णि २. तथाहि-एतेषु त्रयोदशसु जीवस्थानकेषु सर्वकालमष्टानामपि सत्ता, यतोऽष्टानामपि
कर्मणां सत्ता उपशान्तमोह-गुणस्थानं यावद्अनुवर्तते। एते च जीवा उत्कर्षतो यथासम्भवमविरत-सम्यग्दृष्टि-गुणस्थानक-वर्तिन एवेति। एवमुदयोऽप्येतेषु जीवस्थानेष्वष्टानामेव कर्मणां द्रष्टव्यः। तथाहि-सूक्ष्म-सम्पराय गुस्थानकं यावदष्टानामपि कर्मणामुदयोऽवाप्यते। एतेषु च जीव-स्थानकेषूत्सर्गतोऽपि यथासम्भवमविरत
सम्यग्दृष्टि-गुणस्थानक-सम्भव इति । -कर्मग्रन्थ भा. ४ टीका पृ. १२५ Jain Education International
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