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१८८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
उनमें होनी अवश्यम्भावी हैं। इसी तथ्य को दृष्टि में रखकर उनमें छहों लेश्याएँ बतलाई गई हैं।
अपर्याप्त पंचेन्द्रिय पद में अपर्याप्त का अर्थ है - करण - अपर्याप्त, क्योंकि उसी में छहों लेश्याएँ होनी सम्भव हैं । लब्धि - अपर्याप्त में तो सिर्फ कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन ही लेश्याएँ होती हैं।
वैसे तो सामान्यतया सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त चारों प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों में आदि की तीन लेश्याएँ पाई जाती हैं, किन्तु अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों की यह विशेषता है कि उनका लेश्या - स्वामित्व कृष्णादि चार लेश्याओं का है।
अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों में तेजोलेश्या बताने का कारण यह है कि भगवती-सूत्रोक्त-'जल्लेसे मरड, तल्लेसे उववज्जइ' (जिस लेश्या में मरण होता है,' तत्पश्चात् उसी लेश्या में उत्पत्ति होती है), इस सिद्धान्त के अनुसार तेजोलेश्या वाले ज्योतिषी आदि देव जब उसी लेश्या में मरते हैं, तब वे बादर पृथ्वीकाय, अप्काय या वनस्पतिकाय में जन्म लेते हैं । ऐसी स्थिति में तेजोलेश्या के परिणामों में उनकी मृत्यु होने पर उन बादर एकेन्द्रियों की अपर्याप्तदशा में उनमें तेजोलेश्या होती है।
पूर्वोक्त संज्ञीद्विक और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, इन तीन जीवस्थानों के सिवाय शेष ११ जीवस्थानों में कृष्ण, नील, कापोत, ये तीन लेश्याएँ बताई गई हैं, उसका कारण यह है कि उनमें अशुभ परिणाम ही होते हैं, अतः अशुभ परिणामजन्य तीन, अशुभ लेश्याएँ ही होती है, शुभ परिणामजन्य तथा शुभ परिणामरूप तीन शुभ लेश्याएँ नहीं होतीं । वे ११ जीवस्थान ये हैं - (१ - २) अपर्याप्त - पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, (३) पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, (४-५) अपर्याप्त - पर्याप्त द्वीन्द्रिय, (६-७) अपर्याप्त-पर्याप्त त्रीन्द्रिय, (८- ९) अपर्याप्त पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, (१०-११) अपर्याप्तपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव । १
चौदह जीवस्थानों में अष्टविध कर्मबन्ध, उदीरणा, उदय-सत्ता की प्ररूपणा
जीवस्थानों में बंध आदि की प्ररूपणा दो विभागों में की गई है - प्रथम विभाग में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त को छोड़कर शेष १३ जीवस्थानों के बन्ध आदि का कथन है, तथा द्वितीय विभाग में है संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के बन्ध आदि का ।
पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सिवाय शेष अपर्याप्त, पर्याप्त, सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय आदि सभी प्रकार के जीव प्रतिसमय सात या आठ कर्मों-कर्मप्रकृतियों का
१. चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ७ का विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ८२, ८३
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