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________________ जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १८७ काययोग भी होता है; क्योंकि बादर वायुकायिक (दिगम्बर परम्परानुसार तेजस्कायिक भी) जीवों के वैक्रियलब्धि होती है, इसलिए जब वे वैक्रियशरीर बनाते हैं, तब उनमें वैक्रियमिश्र काययोग होता है, और जब वैक्रियशरीर पूर्ण बन जाता है, तब वैक्रिय काययोग होता है। इस प्रकार चौदह जीवस्थानों में पन्द्रह योगों की प्ररूपणा समझनी चाहिए। चौदह जीवस्थानों में छह लेश्याओं की प्ररूपणा लेश्याएँ छह हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेज (पीत), पद्म और शुक्ल। इनका स्वरूप तथा कार्य हम मार्गणास्थान के प्रकरण में बताने का प्रयत्न करेंगे। जीवस्थानों में लेश्याओं की प्ररूपणा जीवस्थान के तीन विभाग करके की गई है। प्रथम विभाग में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों का ग्रहण करके इन दोनों में कृष्णादि छहों लेश्याओं की प्ररूपणा की गई है। दूसरे विभाग में अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय में आदि की चार लेश्याएँ बतलाई हैं। तीसरे विभाग में संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त, अपर्याप्त तथा अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय शेष ग्यारह जीवस्थानों में आदि की कृष्णादि तीन लेश्याएँ बतलाई हैं।२. . अपर्याप्त और पर्याप्त दोनों प्रकार के संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में छहों लेश्याएँ बताने का कारण यह है कि उनमें शुभ और अशुभ, तथा तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र आदि सभी प्रकार के परिणाम होते हैं, इसलिए उन परिणामों से जन्य शुभ-अशुभ लेश्याएँ भी १. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ५ सव्वे सन्निपजत्ते, उरलं सुहुमे सभास तं चंउसु। . . बायरि सव्विउव्वि-दुगं ।।५॥ का विवेचन पृ. १७ (पं. सुखलालजी) (ख) आद्यं (शरीरं) तिर्यग्मनुष्याणां, देव-नारकयोः परम्। । केणंचिल्लब्धिमद् वायु-संज्ञि-तिर्यग्नृणामपि ॥ -लोकप्रकाश सर्ग ३/१४४ (ग) वायोश्च वैक्रियं लब्धिप्रत्ययमेव, इत्यादि। -तत्वार्थ अ. २ सू. ४८ की भाष्यवृत्ति (घ) वैक्रियिकं देव-नारकाणां, तेजो-वायुकायिक-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्मनुष्याणां च केषांचित्। -तत्वार्थ-अ. २ सृ. ४९ राजवार्तिक (ङ) बादर-तेऊ-वाऊ, पंचेन्दिय-पुण्णगा विगुव्वंति। . ओरालियं सरीरं, विगुव्वणप्पं हवे जेसिं॥ -गोम्मटसार जीवकाण्ड २३२ २. सन्नि-दुगि छलेस, अपज्ज-बायरे पढम चउ, ति सेसेसु॥ -कर्मग्रन्थ भा. ४ गा.७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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