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१७६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ लब्धि-अपर्याप्त में तो प्रथम गुणस्थान के सिवाय किसी गुणस्थान की योग्यता ही नहीं होती।
पर्याप्त संजिपंचेन्द्रिय में सभी गुणस्थान : क्यों और कैसे? पर्याप्त संज्ञि-पंचेन्द्रिय में सभी गुणस्थान पाये जाते हैं। कारण यह है कि गर्भज्ञ मनुष्य में सब प्रकार की शुभ, अशुभ तथा शुद्ध-अशुद्ध परिणामों की योग्यता होने से पहले से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक (सभी गुणस्थान) सम्भव हैं। वे संज्ञिपंचेन्द्रिय ही हैं।
एक शंका इस विषय में उपस्थित होती है कि संज्ञि-पंचेन्द्रिय पर्याप्त में पहले के १२ गुणस्थान ही होते हैं, तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान कैसे हो सकते हैं? क्योंकि. इन दो गुणस्थानों के दौरान उनमें संज्ञित्व का अभाव हो जाता है। उस समय उनमें क्षायिक ज्ञान (केवलज्ञान) होने के कारण क्षायोपशमिक ज्ञानात्मक संज्ञा, जिसे भावमन भी कहते हैं, नहीं होती।
इस शंका का समाधान यह है कि संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त में तेरहवें चौदहवें गुणस्थानद्वय का जो कथन है, वह द्रव्यमन के अस्तित्व के सम्बन्ध से संज्ञित्व का व्यवहार अंगीकार करके है, परन्तु भावमन की अपेक्षा से जो संज्ञी हैं, उनमें आदि के बारह गुणस्थान ही होते हैं। सप्ततिकाचूर्णि तथा गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी इसी कथन का समर्थन मिलता है।
१. (क) बादर-असन्नि-विगले अपज्जि पढम-बिय सन्नि-अपज्जत्ते। .
अजम-जुय सन्निपजे सव्वगुणा मिच्छ सेसेसु॥ -कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. ३ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ गाः २ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. ५३ । (ग) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. २ विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. ११/१२ २. (क) मणकरणं केवलिणो वि अत्थि, तेषा सन्निणो भन्नति; मणोवित्राणं पडुच्च ते सन्निणो न भवंति ति।
-सप्ततिका चूर्णि (ख) मणसहियाणं वयणं दिटुं तपुव्वमिदि संजोगम्हि।
उत्तो मणोवयारेणिंदिय-णाणेण हीणम्हि ॥२२७॥ अंगोवंगुदयादो दव्वमणटुं जिणिंद चंदम्हि। मणवग्गण-खंधाणं, आगमणादो दु मणजोगो॥२२८॥ .. अर्थात्-सयोगी केवली गुणस्थान में मन न होने पर भी वचन होने के कारण उपचार से मन माना जाता है और उपचार का कारण यह है कि पूर्व गुणस्थानों में मन वालों के भी वचन देखा जाता है। जिनेन्द्र देव के भी द्रव्यमन के लिए अंगोपांग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्धों का आगमन हुआ करता है, इसलिए उनके मनोयोग कहा है।
(शेष पृष्ठ १७७ पर)
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