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________________ १७४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ इनके साथ ही कर्मग्रन्थ (चतुर्थ भाग) आदि में बन्धहेतु, अल्पबहुत्व और पंचविध भाबों की प्ररूपणा भी की है। उनका स्वरूप इस प्रकार है___ बन्धहेतु-मिथ्यात्व आदि जिन वैभाविक (आत्मा के कर्मोदयजन्य विकृत क्रोध आदि) परिणामों से कर्मयोग्य पुद्गल, कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं, उन परिणामों (अध्यवसायों) को बन्ध हेतु कहते हैं। अल्प-बहुत्व-पदार्थों के परस्पर न्यूनाधिक भाव को अल्प-बहुत्व' कहते हैं। पंचविध भाव-जीव और अजीव की स्वभाविक या वैभाविक औदयिकादि पंचविध अवस्थाओं को भाव कहते हैं। जीवस्थानों से लेकर प्ररूपणायोग्य पूर्वोक्त विषयों का क्रम ___ सर्वप्रथम गुणस्थानों का निर्देश करने का अभिप्राय यह है कि संसारस्थ प्रत्येक जीव किसी न किसी गुणस्थान में होता है। गुणस्थान का निर्देश कर देने से उस-उस जीव के आत्मगुणों के विकास-ह्रास का पता लग जाता है। क्योंकि प्रत्येक जीव किसी न किसी गुणस्थान में विद्यमान होता ही है। गुणस्थान के पश्चात् उपयोग के निर्देश का तात्पर्य यह है कि जो उपयोगवान् है, उसी में गुणस्थानों की सम्भावना है, उपयोगशून्य आकाश आदि या जड़ पदार्थों में नहीं। उपयोग के पश्चात् योग की प्ररूपणा इसलिये की गई है कि उपयोग वाले जीव त्रिविधि योग के बिना कर्म-ग्रहण नहीं कर सकते जैसे-सिद्ध परमात्मा। योग के अनन्तर लेश्या की प्ररूपणा इस आशय से की गई है कि योग द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध का निर्माण लेश्या से ही होता है। लेश्या के पश्चात् बन्ध का निर्देश इसलिए किया गया है, कि जो जीव लेश्या से युक्त हैं, वे ही कर्मबन्ध कर सकते हैं,अलेश्यी नहीं। बन्ध के बाद,उदय, उदीरणा और सत्ता तो बद्धकर्मों के फलभोगअभोग से सम्बद्ध हैं। बद्ध जीवों में परस्पर न्यूनाधिकता अवश्य होती है, उसके कथन के लिए अल्प बहुत्व की प्ररूपणा की गई है और इन कर्म से संयुक्त या वियुक्त होने वाले जीवों में किसी न किसी भाव का होना निश्चित है। अतः अल्पहुत्व के बाद भावों की प्ररूपणा की गई है। जीवस्थानों में गुणस्थानों की प्ररूपणा गुणस्थानों के स्वरूप, प्रकार, क्रम, कार्य आदि की व्याख्या हम अगले प्रकरणों में करेंगे। यहाँ तो विशेष रूप से यह बताया जाएगा कि कर्मविज्ञान की दृष्टि से १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. १ का विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. ४ से ७ (ख) वही, (पं. सुखलालजी) पृ.७-८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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