________________
१४८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ विभिन्नताओं से युक्त जीवों का विचार जरूर किया जाता है। जबकि गुणस्थान कर्मपटलों के तरतम भावों और कषायों तथा योगों की प्रवृत्ति-निवृत्ति के अवबोधक
मार्गणास्थान और गुणस्थान के कार्य में अन्तर आशय यह है कि मार्गणाएँ जीवों के आध्यात्मिक विकासक्रम को प्रतिपादित नहीं करतीं, किन्तु उनके स्वाभाविक-वैभाविक रूपों का विविध प्रकार से विश्लेषण करती हैं। जबकि गुणस्थान जीव के आध्यात्मिक विकासक्रम को बताते हैं और उक्त विकास की क्रमिक अवस्थाओं का वर्गीकरण करते हैं, साथ ही मोहनीय कर्म की मुख्यता से जनित कर्मों की गाढ़ता, शिथिलता एवं क्षीणता के क्रम को भी सूचित करते हैं। मार्गणाएँ सहभावी हैं, जबकि गुणस्थान क्रमभावी हैं। अर्थात्-एक ही जीव में १४ मार्गणाएं हो सकती हैं, जबकि गुणस्थान एक जीव में एक ही हो सकता है। पूर्व-पूर्व गुणस्थानों को पार करके उत्तरोत्तर आगे के गुणस्थान प्राप्त किये जा सकते हैं और आध्यात्मिक विकास में उत्तरोत्तर वृद्धि की जा सकती है, जबकि पूर्व-पूर्व मार्गणाओं को छोड़कर उत्तरोत्तर आगे की मार्गणाएँ प्राप्त नहीं की जा सकतीं, और न ही मार्गणाओं से आध्यात्मिक विकास की सिद्धि प्राप्त हो सकती है। जैसे कि किसी जीव में गुणस्थान तो सिर्फ १३वाँ ही एकमात्र होता है, लेकिन केवलज्ञान को प्राप्त करने वाले तेरहवें गुणस्थानवर्ती साधक में कषायमार्गणा के सिवाय सभी मार्गणाएँ होती हैं। तथा अन्तिम अवस्था प्राप्त साधक में तो तीन-चार मार्गणाओं को छोड़कर सभी मार्गणाएँ होती हैं तथा चौदहवें-गुणस्थान के अन्त में तो सिर्फ चौदहवाँ गुणस्थान होता है, मार्गणा एक भी नहीं होती। इस प्रकार मार्गणास्थान और गुणस्थान के कार्यों में अन्तर है।
इसी दृष्टि से जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान ये तीन मुख्य विभाग क्रमशः किये गए हैं। तथा इनमें से प्रत्येक में क्रमशः आठ या दस अथवा चौदह छह
और दस विषयों की प्ररूपणा की गई है। प्रसंगवश भाव और संख्या का भी प्ररूपण किया गया है।
१. कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. ५ २. कर्मग्रन्थ भा. ३ (प्रस्तावना), पृ. २, ३ ३. कर्मग्रन्थ भा. ४ प्राक्कथन, पृ. ३५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org