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१३२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
को ले जाया जाना प्रदेश-संक्रमण है। प्रदेश संक्रमण पाँच प्रकार का है-(१) उद्वेलन, (२) विध्यात, (३) अधः प्रवृत्त, (४) गुण संक्रमण और (५) सर्व संक्रमण। ___ इसका सामान्य नियम यह है कि जिस प्रकृति का जहाँ तक बन्ध होता है, उस प्रकृति का अन्य सजातीय प्रकृति का संक्रमण वहीं तक होता है। जैसेअसातावेदनीय का बन्ध छठे गुणस्थान तक होता है, अतः सातावेदनीय का असातावेदनीय के रूप में संक्रमण भी छठे गुणस्थान तक तथा असातावेदनीय का सातावेदनीय के रूप में संक्रमण तेरहवें गुणस्थान तक होता है। __ वस्तुतः संक्रमण के इन चारों प्रकारों का सम्बन्ध संक्लिश्यमान एवं विशुद्ध्यमान अर्थात् पाप और पुण्य प्रवृत्तियों से है। जैसे-जैसे वर्तमान के अध्यवसायों में विशुद्धि आती जाती है, वैसे-वैसे पूर्वबद्ध पाप प्रवृत्तियों (प्रकृतियों) का रस (अनुभाग) एवं स्थिति स्वतः घटते जाते हैं, इसके बदले पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग एवं स्थिति स्वतः बढ़ते जाते हैं। इसके विपरीत जैसे-जैसे परिणामों में कलुषितता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे स्थिति बढ़ती जाती है, तथा पापप्रकृतियों का अनुभाग पहले से अधिक बढ़ता जाता है। पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग घटता जाता है। इस प्रकार प्रतिक्षण जो सात कर्म नियमतः बंधते जाते हैं, उनमें भी पूर्वबद्ध सजातीय कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग बन्ध में निरन्तर घटा-बढ़ी चलती रहती है। एक क्षण भी पूर्वबद्ध कर्मों की यह घटा-बढ़ी रुक्ती नहीं है। इससे स्पष्ट है कि पूर्व-उपार्जित कर्मों में सदैव सतत् परिवर्तन चलता रहता है, कोई भी कर्म एक क्षण भी ज्यों का त्यों नहीं रह पाता। संक्रमण की यह प्रक्रिया अपने ही शुभाशुभ परिणामों के अनुसार कार्य-कारण भाव के नियम को लेकर चलती है, किसी भी ईश्वर, देवी-देव या शक्ति की कृपा-अकृपा से नहीं। संक्रमण-प्रकृतियों का बहुत ही विस्तृत वर्णन पंचसंग्रह, कर्म प्रकृति, जयधवला टीका आदि ग्रन्थों में मिलता है। संक्रमण की प्रक्रिया मनोविज्ञानानुसार मानसिक ग्रन्थियों से छुटकारा पाने का मानवजाति के लिए अतीव उपयोगी, सरलतम एवं महत्वपूर्ण उपाय है।
वनस्पति विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में भी संक्रमण प्रयोग जिस प्रकार आज वनस्पति-विज्ञान विशेषज्ञ खट्टे फल देने वाले पौधे को मीठे फल देने वाले पौधे के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। निम्न जाति के बीजों को उन्नत
१. (क) मोक्ष प्रकाश (धनमुनि) से भावग्रहण, पृ. १८
(ख) कर्म सिद्धान्त (कन्हैया लाल जी लोढ़ा), पृ. २१, २२
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