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________________ १३० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ एक स्वरूप को छोड़कर दूसरे सजातीय स्वरूप को प्राप्त करना है, उस प्रयत्न - विशेष का नाम संक्रमण है। व्यावहारिक क्षेत्र में संक्रमणवत् कर्मसंक्रण व्यावहारिक क्षेत्र में हम देखते हैं कि एक द्रव्य का उसी के सजातीय द्रव्य में रूपान्तर हो जाना द्रव्य संक्रमण है, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चले जाना क्षेत्र संक्रमण है, एक ऋतु के चले जाने से दूसरी ऋतु का आ जाना काल संक्रमण है और एक व्यक्ति के प्रति पहले घृणा थी, बाद में किसी कारणवश उसके प्रति स्नेहभाव हो ! गया, यह भाव संक्रमण है । इसी प्रकार कर्म जगत् में भी पूर्वबद्ध कर्मप्रकृतियों का संक्रमण या रूपान्तर वर्तमान में बंधने वाली सजातीय प्रकृतियों में होता है । २ चार प्रकृतियों का कर्म-संक्रमण स्थानांगसूत्र में संक्रमण चार प्रकार का बताया है - (१) प्रकृति - संक्रमण, (२) स्थिति-संक्रमण, (३) अनुभाग - संक्रमण और (४) प्रदेश - संक्रमण । (१) प्रकृति-संक्रमण - किसी कर्मे की उत्तरप्रकृति का उसकी सजातीय प्रकृति में परिवर्तन होना, अर्थात् कर्मों की सजातीय उत्तरप्रकृतियों में परिवर्तन या रूपान्तर होना प्रकृति संक्रमण है। जैसे - वेदनीय कर्म के दो भेद हैं - सातावेदनीय और असातावेदनीय। इनका परस्पर में संक्रमण (परिवर्तन) हो सकता है। सातावेदनीय असातावेदनीय रूप और असातावेदनीय सातावेदनीय रूप हो सकता है। मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण के रूप में और श्रुतज्ञानावरण मतिज्ञानावरण के रूप में, शुभनाम अशुभनाम के रूप में, और अशुभनाम शुभनाम के रूप में, उच्चगोत्र नीचगोत्र के रूप में, और नीचगोत्र उच्चगोत्र के रूप में, दानान्तराय लाभान्तराय आदि के रूप में और लाभान्तराय आदि दानान्तराय आदि के रूप में परिवर्तित = संक्रान्त होकर अपना फल दिखलाने लगता है। अर्थात् बांधते समय, मान लो, मतिज्ञानावरणीय था, वह फल देते समय श्रुतज्ञानावरण आदि का, या सातावेदनीय आदि असातावेदनीय आदि का रूप ले लेता है, और तदनुसार ही वह फल देता है। स्थानांगसूत्र में इस सम्बन्ध में एक चौभंगी बतलाई गई है- एक कर्म शुभ होता है, और उसका विपाक भी शुभ होता है, एक कर्म शुभ होता है; किन्तु उसका विपाक अशुभ होता है, एक कर्म अशुभ होता है, किन्तु उसका विपाक शुभ होता १. (क) गोम्मटसार (क.) गा. ४३८ (ख) पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना, पृ. २७ (गं) कर्मग्रन्थ भा. २ गा. १ की व्याख्या, (घ) मोक्ष - प्रकाश ( धनमुनि), पृ.१७ २. कर्म सिद्धान्त (कन्हैयालाल लोढ़ा), पृ. १९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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