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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - २ १२९
उद्वर्त्तना में अशुभ परिणामों की प्रबलता होती है उद्वर्त्तना या उत्कर्षण का कार्य इससे विपरीत है । जैसे- किसी जीव ने पहले अल्पस्थिति के अशुभ कर्म का बन्ध किया हो, और बाद में और अधिक बुरे कार्य करे, उसके आत्म परिणाम और अधिक कलुषित बनें तो उसके उन बुरे परिणामों के आधिक्य के कारण उसके अशुभकर्मों की स्थिति एवं रस में वृद्धि हो सकती है। साथ ही अशुभ परिणामों की प्रबलता से शुभकर्मों की स्थिति एवं रस कम हो सकते है।
अपवर्त्तना और उद्वर्त्तना के नियम और कार्य
इन दोनों अपवर्त्तना और उद्वर्त्तना के कारण कोई कर्म जल्दी फल दे देता है, कोई देर से। कोई कर्म मन्दफलदायी होता है, और कोई तीव्रफलदायी । उद्वर्त्तन में संक्लेश (अधिक तीव्ररस, रागद्वेष, कषाय की तीव्रता ) के निमित्त से आयुकर्म के सिवाय शेष सब कर्मों-की प्रकृतियों की स्थिति का तथा समस्त पापप्रकृतियों के अनुभाग (रस) में वृद्धि होती है। दूसरी ओर विशुद्धि (शुभभावों) से पुण्यप्रकृतियों के. अनुभाग (रस) में वृद्धि होती है। जबकि अपवर्तन में संक्लेश ( कषाय) की कमी एवं विशुद्धि (शुभभावों की वृद्धि) से पूर्वबद्ध कर्मों में आयुकर्म को छोड़कर शेष सब कर्मों की स्थिति एवं पापप्रकृतियों के रस में कमी हो जाती है तथा संक्लेश · (कषाय) की वृद्धि से पुण्यप्रकृतियों के रस में भी कमी होती है । २
(७) संक्रमण - करण: स्वरूप, प्रकार और कर्म
एक कर्मप्रकृति का अन्य सजातीय (उत्तर) कर्मप्रकृतियों में परिणत हो जाना, यानी एक कर्म का दूसरे सजातीय कर्मरूप हो जाना - संक्रमणकरण है। यह संक्रमण कर्म के मूल भेदों में नहीं होता है। कर्मों के जो ८ मूल भेद हैं, उनमें से एक कर्म दूसरे कर्मरूप नहीं हो सकता । अर्थात् ज्ञानावरणीयादि आठों कर्म जिस रूप में बंधते हैं, ठीक उसी रूप में फल देते हैं। जैसे- ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान का आच्छादन करता है, किन्तु दर्शन का आच्छादन नहीं कर सकता। इसी प्रकार वेदनीयादि कर्म भी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार ही सुख - दुःखादिरबप फल देते हैं। अतः संक्रमण का परिष्कृत स्वरूप यह है कि जिस प्रयत्न - विशेष से कर्म
१. कर्म सिद्धान्त ( कन्हैयालाल लोढ़ा ) से भावांशग्रहण, पृ. १७, १८
२. वही, पृ. १७
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