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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-२ १२५ उदीरणा का ही रूप है। इनसे सामान्य दोष या दुष्कृत निष्फल हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं, फल देने की शक्ति खो बैठते हैं। प्रगाढ़ दोष हों तो प्रायश्चित्त या संल्लेखनासंथाराव्रत (शरीर निढाल हो जाने पर) स्वीकार करके उनका नाश किया जाता है। ईसाई धर्म में और मनोविज्ञान में भी उदीरणा का रूप ईसाई धर्म में भी उदीरणा के इस तथ्य को स्वीकार किया गया है। ईसाई धर्म में 'Confess thy sins' तुम्हारे पापों को स्वीकार करो, का सिद्धान्त प्रतिक्रमण का ही रूप है कि अज्ञात मन में स्थित मनोग्रन्थियों का विरेचन या वमन कराने से व्यक्ति को शारीरिक-मानसिक स्वस्थता प्राप्त होती है। मनोवैज्ञानिक पद्धति से अज्ञात मन में छिपी हुई ग्रन्थियाँ, कुण्ठाएँ, वासनाएँ, कामनाएँ ज्ञात मन में उभर आती हैं, उदित होती हैं और उनका फल भोग लिया जाता है तो वे नष्ट हो जाती हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार वर्तमान में अधिकांश शारीरिक-मानसिक रोगों का कारण अज्ञात. मन में प्रच्छन्न या देबी हुई ये ग्रन्थियाँ ही हैं, जब ये ग्रन्थियाँ बाहर प्रगट होकर नष्ट हो जाती हैं तो इनसे सम्बन्धित रोग भी नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार की मानसिक चिकित्सा भी उदीरणाकरण का एक रूप है। उदीरणा में विशेष सावधानी आवश्यक उदीरणा के लिए पहले आत्मार्थी साधक को शुभभावों से अपवर्तनाकरण द्वारा पूर्व संचित कर्मों की स्थिति घटानी अनिवार्य है। स्थिति घट जाने पर कर्म नियत समय से पूर्व उदय में आ जाते हैं और उक्त कर्म का फल भोग कर उसे नष्ट कर दिया जा सकता है। आत्मार्थी मुमुक्षु को यह ध्यान रखना है कि उदीरणा के उदय में आने पर कषायभाव की अधिकता न होने पाए, अन्यथा उदीरणा से जितने कर्म कटते (निर्जीर्ण होते) हैं, उनसे कई गुणे अधिक कर्म बँध भी सकते हैं। जैसे-कोई तपस्या करके या आतापना लेकर कर्मों की उदीरणा करके उन्हें क्षीण करने का उपक्रम करता है, किन्तु साथ ही तपस्या या साधना का मद, अहंकार, क्रोध, माया, लोभ, ईर्ष्या, शापप्रदान आदि कषायभाव हों तो कर्म क्षय होने के साथ-साथ कर्मबन्ध का जत्था अधिक बढ़ जाएगा। (५-६) उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण : स्वरूप और कार्य सत्ता में स्थित पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति एवं उसके रस (अनुभाग) में वृद्धि होना उद्वर्तना-अवस्था है, और इन दोनों में कमी होना अपवर्तना-अवस्था है। जिस १. कर्म सिद्धान्त पृ. ३१, ३२ २. कर्म सिद्धान्त (कन्हैया लाल लोढ़ा) से भावग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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