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________________ १२४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ रूप में कालान्तर में फल देने वाला है, उसे इंजेक्शन, दवा या अन्य किसी उपचार द्वारा पहले से ही उस विकार को, बिना पके हुए फोड़े को पकाकर उसका फल (पीड़ारूप) भोग लेने से ही उक्त रोग, व्याधि या पीड़ा से छुटकारा मिल जाता है। कई रोगों में वमन, विरेचन आदि द्वारा शरीर का विकर निकाल कर भविष्य में आने वाले भंयकर रोग से छुटकारा पाया जाता है। उसी प्रकार उदीरणा में भी कर्म रोग के पकने से पहले ही उसका फल भोग लिया जाता है। प्रत्येक प्राणी के सहजरूप में उदय-उदीरणा प्रायः होती रहती है। वैसे तो कुछेक अपवादों के सिवाय प्रत्येक जीव के द्वारा किये गए अमुक (अच्छे-बुरे) प्रयत्नों से, तथा अपनाये गए निमित्त से सहज रूप में उदय और उदीरणा सदा चालू रहते हैं। चूँकि उदित कर्म की ही (उदयप्राप्त कर्म वर्ग के अनुदित कर्म पुद्गलों की) उदीरणा होती है, इसलिए उदय होने पर उदीरणा प्रायः निश्चित होती है। विशेष दुष्कर्मों की उदीरणा के लिए विशेष सत्पुरुषार्थ आवश्यक परन्तु अन्तर्तम में-अज्ञात, अगाध गहराई में छिपे व स्थित कर्मों की उदीरणा के लिए पुरुषार्थ विशेष की आवश्यकता होती है। जिसे बाह्यान्तर तप, व्रतादिसाधना, परीषह-उपसर्गों का समभाव से सहन इत्यादि द्वारा कर्मों को भोग कर क्षय किया जाता है। ___ कर्म का विपाक कभी-कभी नियत समय से पूर्व स्वाभाविक रूप से अनायास ही हो जाता है। इसे भी उदीरणा कहते हैं, यह स्वतः उदीरणा है। इसके लिए अपवर्तना द्वारा पहले कर्म की स्थिति कम कर दी जाती है। स्थिति कम हो जाने से कर्म नियत समय से पूर्व उदय में आ जाता है। जब कोई मनुष्य अपना आयुष्य पूर्ण रूप से भोगने से पहले ही असमय में ही मर जाता है, तो वैसी मृत्यु को लोग अकाल मृत्यु कहते हैं। परन्तु कर्मविज्ञान की भाषा में ऐसा होने का कारण आयुष्य कर्म की उदीरणा हो जाना है। अपने अन्तस्तल में स्थित कर्म की ग्रन्थियों (बन्धनों) को भी तप, संलेखना, साधना, आदि प्रयत्नों से समय से पूर्व उदय में लाकर भोगा जाता है। अपने द्वारा पूर्वकृत दोषों, पापों या अपराधों व भूलों का स्मरण करके गुरु या बड़ों के समक्ष आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा, प्रतिक्रमण, क्षमायाचना, आदि करना भी १. कर्मसिद्धान्त (कन्हैयालाल लोढ़ा), पृ. ३० २. जैनदर्शन (न्यायविजय जी ) पृ. ४५८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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