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________________ ११२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ के पुराने प्रबल शत्रुओं ( रागद्वेष, कषाय, मोह, काम आदि) के साथ सर्वप्रथम लड़ना पड़ता है, अपनी वृत्तियों और विकारों के साथ युद्ध करना पड़ता है, और असंख्य बार पराजय का मानभंग भी सहन करना पड़ता है । परन्तु अन्ततोगत्वा तो ' उस विग्रह में अपनी विजय होती ही है। उस आत्मा का अन्तिम भविष्य, अन्तिम परिणाम बहुत ही सुन्दर होता है। सुद्दढ़ पराक्रम और प्रबल शक्ति से आमने-सामने डटकर लड़ने में कदाचित् पराजय होने में जो आनन्द है, वह मूक बनकर मार खाने में नहीं है । उदित कर्म निमित्त प्रस्तुत करता है, बलात् नियोजित नहीं करता कर्म और आत्मा का सम्बन्ध निमित्त - नैमित्तिक होने के कारण, जिस काल में वह निमित्त (बद्ध कर्म) उदय में आता है, तब निर्बल आत्मा स्वरूपभ्रष्ट हो जाती है, वह विभाव- परिणाम को अपना लेती है। ऐसा होने में आत्मा पर कर्म का बलात्कार है, यह नहीं समझना चाहिए। कर्म तो उदय में आने पर सिर्फ विभाव का निमित्त जुटा देता है। निर्बल आत्मा निमित्त की सत्ता (शक्ति) के समक्ष पराभूत होकर परभाव में रमण करने लगता है। जैसे-सूर्य के उदय काल में चकवा - चकवी : मिथुनभाव में जुट जाते हैं, और वैसा होने में सूर्य तो सिर्फ तटस्थ निमित्त है, वैसे ही आत्मा द्वारा परभाव में रमण होने में उदयमान कर्म भी सिर्फ निमित्तं ही है। मोहनीय कर्म के उदयकाल में वह कर्म कषाय का निमित्त प्रस्तुत करता है, परन्तु उसमें, कषाय भाव में बलात् नियोजित करने की कोई (सत्ता) क्षमता नहीं है। इसलिए जो निर्बल आत्माएँ हैं, वे ही निमित्त (कर्म) के उदयकाल में तत्प्रायोग्य विभाव के प्रवाह में बह जाते हैं। अथवा उसे अपना लेते हैं। जैसे रोड से जाते हुए व्यक्ति को नाट्यगृह, होटल, मिष्टान्न भण्डार, आदि नाटक देखने का, चाय-कॉफी पीने का, तथा मिष्टान्न खाने आदि का केवल निमित्त प्रस्तुत कर देते हैं, परन्तु वे निमित्त जबरन किसी को उस-उस कार्य में जोड़ते, घसीटते या ठेलते ही हैं। इसी प्रकार उदय में आया कर्म भी तदनुसार निमित्त को जुटाता है, परन्तु कोई भी उदयमान कर्म बलात् किसी कार्य विशेष या भावविशेष में नियोजित नहीं करता । जो वीर्यवान् पराक्रमी आत्मा निमित्त की सत्ता के वश में नहीं होते, वे अल्पकाल में ही परम-पुरुषार्थ को सिद्ध कर सकते हैं। यद्यपि उदय में आए हुए कर्म तो उन्हें और अज्ञानी जीवों को एक सरीखे ही भोगने पड़ते हैं । परन्तु उन दोनों के कर्म (फल) भोगने की क्रिया में महान् अन्तर है। बलवान् आत्मा (जीव) तो उन १. कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ. ३८, ३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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