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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ १११ किस कर्म के उदय से किन-किन फलों का अनुभाव होता है ? किस-किस कर्म के उदय से जीव को किस-किस फल का अनुभाव (वेदन) होता है? इसका विशद निरूपण प्रज्ञापना सूत्र में बहुत ही स्पष्टरूप से किया गया है। हमने कर्मविज्ञान के पंचम खण्ड-कर्मफल के विविध आयाम' के सातवें निबन्ध में इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की है। अतः पुनः पिष्टपेषण करना उचित नहीं होगा।
कर्मफल की उदयमान अवस्था में साधक क्या करे ? पूर्वबद्ध कर्म जब उदय में आते हैं, तब प्रत्यक्ष रूप से स्वयं कुछ भी निष्पन्न नहीं कर सकते, परन्तु अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार सिर्फ कार्य होने के निमित्त की रचना कर देते हैं। कर्म का कार्य है, सिर्फ निमित्त की योजना कर देना। अवशिष्ट कर्त्तव्य आत्मा (कर्मकर्ता) के अधीन है। कर्म अपने स्वभाव के अनुरूप तथा अनुभाग की तीव्रता-मन्दता के प्रमाणानुसार प्रबल या निर्बल अवसर प्रस्तुत करने के पश्चात् वह स्वयं सत्त्वहीन बन जाता है। यदि निमित्त को जटाने के उपरान्त भी कर्म के पास अधिक सत्ता या शक्ति होती तथा आत्मा को जबरन तत्प्रायोग्य कर्त्तव्य में जुटा देने का सामर्थ्य होता तो आत्मा को तीन काल में भी मोक्षप्राप्ति सम्भव न होती; एवं आत्मा को अपने परमस्थान (सिद्ध-मुक्तगति) अथवा परमात्मपद की ओर भव्य जीवों को प्रेरित करने का तीर्थंकरों तथा शास्त्रकारों का आशय या पुरुषार्थ निष्फल हो जाता। उस निमित्त, उस प्रसंग या उस अवसर का लाभ लेना या न लेना, अर्थात्-वह निमित्त, अवसर या प्रसंग आत्मा को जिस प्रवृत्ति-विशेष में नियुक्त होने के लिए लुभाता है, उसमें नियुक्त होना या नहीं ? उसकी स्वतंत्रता स्वयं आत्माधीन है। व्यक्ति चाहे तो उसमें जुड़े और न चाहे तो न जड़े, यह व्यक्ति की अपनी इच्छा पर निर्भर है। यदि वह आत्मा अपनी स्वाभाविक निसर्ग-सिद्ध सत्ता का या अधिकार का उपयोग करे और उस निमित्त में जुड़कर तत्प्रायोग्य प्रवृत्ति में नियुक्त न हो तो उस कर्म की उदयमान सत्ता उसका स्पर्श नहीं कर सकती। ऐसी आत्मा का स्थान इतना उच्च होता है कि वहाँ कर्म के आग्नेय गोले पहुँच नहीं सकते। जब मनुष्य अपने मन से जगत् की समस्त सत्ताओं से पृथक् अपना स्वातंत्र्य (Mental declaration of independance) जाहिर करता है, तब अलबत्ता, उसे अपने स्वयं
१. (क) देखें- प्रज्ञापना सूत्र खण्ड ३, पद २३, द्वार ५ अनुभावद्वार में आठों कर्मों के
अनुभावों की विस्तृत व्याख्या (ख) देखें-कर्मविज्ञान भा. २, खण्ड ४, में 'कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष
फल' शीर्षक निबन्ध में, पृ. ३५०-३६०
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