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________________ ९४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ हुआ, आत्मा कषायवश हुआ। उनका शरीर तो श्मशान में समाधिभाव का प्रदर्शक बन कर खड़ा रहा, किन्तु आत्मा रण-संग्राम में चढ़ गया। और मन से ही अत्यन्त कषायभाव से कल्पित शत्रुओं का पराभव किया। उनका कषायभाव इतनी हद तक आगे बढ़ गया कि उनके सातवीं नरक में जाने योग्य पाप-कर्मदलिक इकट्ठे करके सत्ता में रखे। और उस बद्ध पाप कर्म के उदय में आने तक यदि वे न चेतते तो अवश्य ही उन्हें उन कर्मों का वैसा ही फल मिला होता। परन्तु उन वीर्यवान आत्मा ने अपनी परवशता जान ली और सत्ता में पड़े हुए उन कर्म स्कन्धों का उदयाभावी क्षय कर डाला और दूसरे ही क्षण अपना परम लक्ष्य सिद्ध कर लिया। इस दृष्टान्त में योग का अल्पत्व तो स्पष्ट ही था परन्तु साथ ही कषाय का इतना बहुत्व था कि एक क्षण में सातवीं नरक में जाने की स्थिति प्राप्त कर ली थी। इन सब तथ्यों पर से यही फलित होता है कि योग द्वारा प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध का निर्माण होता है। वस्तुतः कर्मबन्ध में कषाय ही प्रधान हेतु है।१ . इसी तथ्य पर जरा विशद रूप से विचार करें। बहुत-से लोग रात-दिन मन ही मन अनेक तर्क-वितर्क की उधेड़-बुन करते रहते हैं। अथवा सामान्य प्रसंगों पर कई लोगों की अत्यधिक बोलने की आदत होती है। तथैव बेचैनी के करण अथवा मनोरंजन के लिए घड़ी भर भी स्थिर न बैठकर इधर से उधर भटकते रहते हैं। ऐसे मनुष्यों का मन-वचन-काय के योग का चांचल्यं बहुत अधिक नजर आता है। परन्तु उक्त योग के साथ कषाय का बहुत्व नहीं होता। वे बेचारे भोले भाव से अहर्निश योग-प्रवृत्ति करते रहते हैं। उनका मन अनेक उथल-पुथलों की जंजाल में अथवा राजनैतिक या सम्प्रदायिक.चर्चाओं में अत्यधिक ग्रस्त रहता है। फिर भी उनका प्रबल रागभाव उक्त प्रवृत्तियों के पीछे नहीं होता। हाँ, उनका मन प्रमाद, अनुपयोग और असंयम के कारण पुराने रूढ़ मार्ग पर यात्रा करता रहता है। परन्तु उसमें उनका गहरा और स्निग्ध मोहभाव भी नहीं होता। ऐसे मनुष्य सिर्फ अशुभयोग द्वारा बँधने योग्य कर्म उपार्जित करते हैं, परन्तु कषाय के अल्पत्व के कारण प्रदेश के अनुपात में स्थितिबन्ध और रसबन्ध नहीं होता। इसके विपरीत अनेक व्यक्ति अल्प योग के साथ इतने तीव्र कषाय को जोड़ लेते हैं कि उनके द्वारा उपार्जित कर्म प्रकृति के प्रदेशबन्ध के प्रमाण में अनुभागबन्ध और स्थितिबन्ध, माना न जा सके, इतना तीव्र और चिरस्थायी होता है। व्यवहार में पटु और आडम्बर करने में सिद्धहस्त बहुत-से लोग सयुक्तिक आडम्बर का इतना घटाटोप रच सकते हैं कि उनके गूढ़ और चिकने तथा प्रौढ़ भावों १. कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ. २७, २८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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