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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ ९३ प्रदेश-विस्तार अतिविपुल होने पर भी उसका फलदायक प्रभाव और स्थिति नगण्य ही होती है। समग्र विश्व में प्रलय कर डालेंगे, ऐसे तथा एकदम टूट पड़ने के कगार पर दिखाई देने वाले जलपूर्ण बादल अनेक अवसरों पर सिर्फ कुछ क्षणों तक रिमझिम बरस कर कतिपय बूंद डालकर बिखर जाते हैं। वहाँ प्रदेश विस्तार वाला होने पर भी फल का तारतम्य अत्यन्त अल्प दिखाई देता है। शरीर-सम्बन्धी वेदनीय प्रसंगों में भी कई बार प्रदेशबन्ध अति विस्तृत नजर आता है फिर भी अनुभाग का अल्पत्व दृष्टिगोचर होता है। अनेक अवसर पर बहुत से लोगों के सारे शरीर पर शीतला के चकत्ते उभर आते हैं, तब ऐसा मालूम होता है, मानो सारे शरीर पर वेदनीय कर्मप्रकृति का प्रदेश विस्तार हो। परन्तु उसकी क्षणिक और वेदनीय की अति मन्दता-अर्थात् अनुभागबन्ध स्वल्प होता है। ऐसे प्रसंग पर यों समझना चाहिए कि उस प्रकार के कर्म का उपार्जन करते समय अशुभयोग के चापल्य का बहुत्व और कषाय का अल्पत्व होना चाहिए। कई मद्य ऐसे होते हैं कि अधिक मात्रा में पीने पर भी सिर्फ सहज (थोड़ी-सी) उन्मत्तता और वह भी थोड़े-से समय तक ही उत्पन्न करते हैं। उसी प्रकार फलदानशक्ति और स्थिति का अल्प होना उसमें हेतुरूप, उस-उस कर्म का उपार्जन करते समय सेवित कषाय का अल्पत्व है। कषाय बाहुल्य तथा योग के अल्पत्व का परिणाम .. इसके विपरीत जहाँ कषाय का बाहुल्य और योग का अल्पत्व होता है,वहाँ फलदान शक्ति और स्थिति का तारतम्य अधिक होता है। बहुत दफा एक छोटी-सी फुसी सारे शरीर में तीव्र वेदना उत्पन्न कर देती है, और अनेक उपचार करने पर भी वर्षों तक मिटती नहीं। वहाँ प्रदेशबन्ध का अल्पत्वं होते हुए भी कषाय की अधिकता के बल से अनुभाग और स्थिति अधिक होती है। अतः कई बार कर्म देखने में नगण्य-सा लगता है, फिर भी फलदान शक्ति अधिक होती है। जैसे-कोई उग्र मद्य (Wine) थोड़ी-सी मात्रा में होते हुए भी दीर्घकाल तक उन्मत्तता पैदा कर देता है, वैसे ही तीव्र कषाय से बांधा हुआ कर्म का अनुभागबन्ध भी दीर्घकाल तक तीव्र फल देता जाता है। __ योगों की अल्पता, किन्तु कषाय की बहुलता का निदर्शन प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कर्मबन्ध से कर्ममुक्ति की कथा इसी तथ्य का समर्थन करती है। वे एकान्त स्थल में काययोग को स्थिर करके ध्यानस्थ होकर अडोल खड़े थे। श्रेणिक नृप के सेवक के मुख से अपनी निन्दा सुन कर उनका मनोयोग शिथिल १. कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ.-२६,२७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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