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________________ ५० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अव्याकृत हैं। जैनदर्शन जीव और कर्म के सम्बन्धों को प्रवाह रूप से अनादि मानता है। गोम्मटसार में कहा है-जिस प्रकार सुवर्ण और पाषाण यद्यपि भिन्न-भिन्न वस्तु हैं, तथापि इनका सम्बन्ध ( प्रवाहरूप से ) अनादि माना जाता है; ये नये नहीं मिले हैं। इसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । ' पंचास्तिकाय में जीव और कर्म का (बन्ध) अनादि सम्बन्ध कैसे है ? इसे 'जीव- पुद्गल - कर्मचक्र' द्वारा सिद्ध किया गया है - " जो संसार में स्थित (जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ) जीव है, उसके रागद्वेष ( कषाय) रूप परिणाम अवश्य होते हैं। उन परिणामों से नये कर्म बंधते हैं। कर्मों से नाना गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म से शरीर होता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण, विषयों के ग्रहणवश मनोज्ञ-अमनोज्ञ पर राग-द्वेष परिणाम होते हैं। इस प्रकार संसार चक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्म और कर्म से भाव होते रहते हैं। यह प्रवाह अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि - अनन्त और भव्य जीव की अपेक्षा से अनादि- सान्त है । " २ ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य की दृष्टि में संसार और कर्म का अनादि सम्बन्ध ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य में भी संसार को अनादि सिद्ध करके जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध स्वीकार करते हुए कहा गया है - "यह दोष नहीं है, क्योंकि संसार अनादि है। यदि संसार आदिमान् होता तो यह दोषापत्ति होती । अनादि संसार में बीज अंकुरवत् हेतुहेतुमद्भाव से ब्रह्म (आत्मा) के साथ कर्म के संग-वैषभ्य की प्रवृत्ति विरुद्ध नहीं है। उपर्युक्त शांकर भाष्य से संसार की अनादिता सिद्ध होने से जीव और. कर्म का सम्बन्ध अनादि सिद्ध होता है । ३ संसारस्थ आत्मा अनादिकाल से कर्मबद्ध होता रहता है : क्यों और कैसे ? सिद्धान्त यह है कि संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मयुक्त है और कर्म बांधना, और कर्मफल भोगना, फिर कर्म बांधना और कर्मफल भोगना, यह कर्मकर्मफलभोगचक्र अनादिकाल से निरन्तर चल रहा है। इसलिए भगवान महावीर ने कहा- संसारी जीव प्रतिक्षण सात या आठ कर्म (साम्परायिक रूप से ) बाँधता रहता है । 9. जीबंगाणं अणाइ-संबंधो, कणयोवले मलं वा ताणत्थितं सयं सिद्धं । - गोम्मटसार (क.) २/३ २. जो खलु संसारत्थो जीवो, तत्तो दु होदि परिणामो परिणामादो कम्मं, कम्मादी होदु गदीसु गदी ॥ १२८ ॥ दिस देहो, देहाटो इंदियाणि जायते । हिंदु विसय-गहणं, तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२९ ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसार-चक्कवालंमि । इदि जिणवरेहिं भणिदो, अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥ १३० ॥ न कर्माविभागात् इति चेन्न, अनादित्वात् नैष दोष; अनादित्वात् संसारस्य । भवेदेष दोषो यदि आदिमान् संसारः स्यात् । अन्नादौ तु संसारे बीजांकुरवत् हेतु हेतुमद्भावेन कर्मणः संग-वैषमस्य च प्रवृत्तिर्न विरुद्ध्यते । - ब्रह्मसूत्र २, १, ३५ शांकरभाष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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