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________________ कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ४९ शराब या वह भांग बोतल को तथा गिलास को नशा नहीं चढ़ाती, मुर्दे के पेट में शराब या भांग उँडेल देने से उसे भी वह नशा नहीं चढ़ाएगी। वह शराब या भांग नशा तभी चढ़ाती है, जब सचेतन जीवित व्यक्ति उसको गले से नीचे उतारेगा। इसी प्रकार कर्म भी वस्त्र, शरीर या किसी अचेतन द्रव्य या पदार्थ के नहीं चिपटता। वह जब भी चिपटेगा, सचेतन जीव को ही चिपटेगा। अतः जिसका जैसा स्वभाव है, वैसी ही क्रिया उससे होती है। चिपटना ही कर्म ही कर्म का स्वभाव नहीं है ___ अगर चिपटना ही कर्म का स्वभाव हो, तब तो वह जिस प्रकार आत्मा से चिपटता है, उसी प्रकार-शरीर, वस्त्र तथा अन्यान्य वस्तुओं से भी चिपटेगा। आत्मा से ही चिपटे और शरीरादि से न चिपटे, ऐसा विवेक तो वह कर नहीं सकता; क्योंकि कर्म स्वयं जड़-(पुद्गल) है।१ . कर्ममुक्त शुद्ध आत्मा के कर्म नहीं चिपटता दूसरा प्रश्न कर्मबन्ध के सम्बन्ध में यह भी उठता है-वह आत्मा से चिपटता ही है तो अशुद्ध आत्मा की तरह. शुद्ध आत्मा-मुक्त परमात्मा से भी चिपटने लगेगा। अर्थात् संसारस्थित आत्माओं को जैसे कर्म चिपटते हैं, वैसे सिद्धावस्था (मुक्तावस्था) प्राप्त आत्माओं को भी कर्मबन्ध होने लगेगा। किन्तु ऐसा नहीं होता। जहाँ जीव में कषाय या रागद्वेषादि हैं, वहीं कर्म चिपटते हैं, जहाँ कषाय या राग-द्वेषादि विकार नहीं हैं, उन ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों के कर्म नहीं चिपटते। आध्यात्मिक शब्दावली में जिस जीव में राग-द्वेषादि या कषाय की चिकनाहट है, उसी जीव के कर्म चिपटते हैं, अन्य जीव को नहीं। ___ अगर शुद्ध यानी कर्मरहित आत्मा के भी कर्म का बन्ध माना जाएगा तो मोक्ष या मुक्ति शाश्वत एवं अव्याबाध सुख का धाम नहीं बन सकेगी, क्योंकि मुक्त आत्माओं को भी चाहे जब कर्मबन्ध होने लगेगा और उसके फलस्वरूप जन्म-जरा-मरणादि नाना दुःख भोगने पड़ेंगे और जब मोक्ष में सर्वकर्मरहित अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय युक्त परम-शुद्ध दशा नहीं है तो उसे प्राप्त करने से भी क्या लाभ? सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय रूप धर्माचरण में भी पुरुषार्थ कौन करेगा? धर्माराधना या आध्यात्मिक साधना भी फिर निरर्थक सिद्ध होगी। इसलिए यह मानना कथमपि उचित नहीं है कि शुद्ध आत्मा के भी कर्मबन्ध होता है। संसारस्थ जीव और कर्म का बंध अनादि है, प्रवाहरूप से वैसे निश्चयदृष्टि से तो प्रत्येक आत्मा शुद्ध है, शुद्ध था, फिर अशुद्ध कैसे और कब होगया? कर्म उसके साथ कब से लगे? ये प्रश्न पहले से ही समाहित और १. आत्मतत्व-विचार से भावांश ग्रहण पृ. ३८७ २. वही, पृ. २७६ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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