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________________ कर्मबन्ध का विशद स्वरूप २७ को सजा देने के लिए उसके हाथों-पैरों में हथकड़ियाँ-बेड़ियाँ डाल देना भी बन्ध है।' बाह्य बन्ध किसी भी प्रकार का हो, परतंत्रता में डालने वाला है। फिर वह बन्धन रस्से का हो, सांकल का हो, या हथकड़ियों-बेड़ियों का, कथमपि सुखदायक नहीं है। तोते को लोहे के पिंजरे के बजाय सोने के पिंजरे में डाल दिया जाए, अथवा किसी पशु को लोहे की सांकल की अपेक्षा सोने की सांकल से बांधा जाए, तो भी उसे अच्छा नहीं लगेगा, वह मन ही मन दुःखी होता रहेगा और बन्धनमुक्त होने के लिए छटपटाता रहेगा। इससे भी बढ़कर बन्धन होता है-जेल की कोठरी का, अथवा नजरबन्द कैद का, तथा अज्ञातवास का या वनवास का। इसके अतिरिक्त किसी क्षेत्र की प्रतिबन्धता का बन्धन या किसी पदार्थ की प्रतिबन्धता का बन्धन अथवा किसी की दासता या गुलामी का बन्धन भी कम दुःखदायक या पीड़ाजनक नहीं है। कर्मबन्धन सभी बाह्यबन्धनों से प्रबलतर है, क्यों ? संक्षेप में ये सभी बाह्यबन्धन अत्यन्त मनोवेदनाजनक, कष्टकारक तो हैं ही। साथ ही मानव की शारीरिक-मानसिक शक्तियों को भी कुण्ठित एवं भग्न करने वाले, स्वभाव को परतंत्रता की ओर ढालने वाले, विकृत करने वाले एवं प्रतिभा को रौंदने वाले हैं। - इन सब बन्धनों से भी बढ़कर एक और बन्धन है, जो इन सब बाह्यबन्धनों का मूल कारण है, मुख्य स्रोत है। वह बाहर से तो किसी भी अल्पज्ञ को बन्धन-जैसा नहीं दिखता, क्योंकि वह भावबन्धन या आन्तरिक बन्धन है। परन्तु प्राणी के जीवन-व्यवहार में उसके कषाय, राग-द्वेष, मोह, भय, काम आदि की वृत्ति-प्रवृत्ति पर से उस बन्ध का अनुमान हो जाता है। उसे कर्म-विज्ञान की भाषा में कर्मबन्ध कहते हैं। कर्मबन्ध उपर्युक्त सभी बाह्य बन्धों से प्रबलतर है। अगर कर्मबन्ध न हो तो पूर्वोक्त सभी बन्धन उत्पन्न नहीं हो सकते। इस प्रबल बन्ध के कारण ही पूर्वोक्त सभी बंधन होते हैं। उपर्युक्त सभी बन्धन तो केवल शरीर से सम्बद्ध हैं, परन्तु कर्मबन्ध मूल में आत्मा से सम्बद्ध है। .. कर्मबन्ध आत्मा को परतंत्र, अनाथ एवं विमूढ़ बना देता है कर्मबन्ध इतना प्रबल है कि वह आत्मा के स्वभाव को, आत्मा के निजी गुणों को विकृत, कुण्ठित और आवृत कर डालता है। इसी बन्ध (कर्मबन्ध) के कारण आत्मा अनाथ, परतंत्र और विमूढ़ बनकर न तो अपना विकास सम्यक् रूप से कर पाती है, और न ही सम्यग्ज्ञान-दर्शनादि गुणों की वृद्धि करने में सम्यक पुरुषार्थ कर पाती है; न ही बाह्य-आभ्यन्तर तपश्चरण में, तथा महाव्रत एवं संयम-नियम के पालन में अपनी पूर्ण शक्ति लगा सकती है। १. बन्धः निगडादिभिः संयमने। -व्यवहारसूत्र उ. ६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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