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________________ = कर्मबन्ध का विशद स्वरूप बन्ध समस्त प्राणियों के लिए दुःखदायक-पीड़ाजनक बन्धन किसी भी प्राणी को अच्छा नहीं लगता। जिसमें मनुष्य तो सर्वाधिर चैतन्य-विकासशील प्राणी है, उसके लिए बन्धन कितना पीड़ाजनक एवं दुःखदायी है यह वही सबसे अधिक अनुभव कर सकता है। बन्धन का नाम सुनते ही पशु-पक्षी एवं मनुष्य की आत्मा तिलमिला उठती है। कोई भी मानव, देव, नारक या तिर्यज जीव बन्धन को सुखदायी एवं शान्तिप्रद नहीं मानता। समस्त प्राणियों को बन्ध कष्टकारक, दुःखरूप और मनोवेदनाजनक लगता है। बन्धन की बाह्य पीड़ा कदाचि किसी जीव को आदत या अभ्यास के कारण महसूस न होती हो, परन्तु आन्तरिक पीड़ा रह-रहकर उसके मन को क्षुब्ध, खिन्न एवं संतप्तं बना देती है। बाह्यबन्ध का रूप भी कितना वेदनाजनक है? ___ बाह्य (द्रव्य) बन्ध का रूप भी विभिन्न आचार्यों की दृष्टि में कितना कष्टकारद है, यह उनके द्वारा बाह्यबन्ध के बताए हुए लक्षणों से ही मालूम हो जाता है। आचार पूज्यपाद कहते हैं-'किसी को अपने अभीष्ट स्थान से जाने-आने से रोकने का कारण बन्ध है।'१ आचार्य उमास्वाति का कथन है-“रस्सी, डोरी, सांकल आदि से बांधक किसी पर नियंत्रण करना बन्ध है"।२ धवलाकार का कहना है-"अभीष्ट प्रदेश गमन करने के लिए उत्सुक जीव पर प्रतिबन्ध लगाने हेतु खुंटे, कील आदि में रस्सा श्रृंखला आदि डालकर उनसे बांध देना, जकड़ देना, बंध है।३ यंत्र, पिंजरे या जेल में 'अथवा किसी मकान में बंद करके यातना देना भी बाह्य बन्ध है। इसी प्रकार अपरार्ध १. अभिमतदेशे गतिरोध हेतुर्बन्धः। -तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि ७/२५ २. (क) बध्यते येन रज्ज्वादिना स बन्धः। -तत्त्वार्य भास्य ८/१ (ख) रज्ज्यादि-बंधने __ -ज्ञाता. १/८ अ. ३. अभिमत-देश-गमनं प्रत्युत्सुकस्य तत्प्रतिबन्धहेतुः कीलादिषु रज्ज्वादिभिर्व्यतिसंगो बन्ध इत्युच्यते। .-धवला पु. १३/ पृ. ३४७ २६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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