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________________ २० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) उसने इस आशय का पत्र पिता को लिखा और पिता के कमरे में टेबल पर रख कर चुपचाप चला गया - " मैं अपनी जिंदगी को अत्यन्त सुखी बनाने के लिए आप से नाता तोड़कर जा रहा हूँ। आपने मुझे पाला-पोसा, बड़ा किया, उसके लिए आपका आभार ! अब आपको मेरा मुंह देखने को नहीं मिलेगा । " सहशिक्षा, सिनेमा, टी.वी. और उपन्यासों के वाचन ने उसके जीवन को, उसके तन-मन को कुमार्ग पर चढ़ा दिया। उसको अपना पिता अब ग्रामीण और असंस्कारी मालूम होने लगा। फैशन और व्यसन ने उसकी बुद्धि और दृष्टि विपरीत कर दी। वह एक धनिक की लड़की के रूप पर मोहित हो गया। लड़की ने भी प्रेम का नाटक रच कर उसे अपने मोहजाल में फंसा लिया। अतः अब उस लड़के को अपना पिता नहीं, वह लड़की (प्रेमिका) ही उपकारी प्रतीत होती है। अब वह पिता के साथ रहने में सुख नहीं मानता, इस लड़की के साथ रहने में ही उसे सुख मालूम होता है। उसका पिता इस पत्र को पढ़ते ही मूर्च्छित हो गया। होश में लाने वाला कोई था नहीं। निर्धन मनुष्य का सहायक कौन बनता? शीतल पवन दौड़ कर आया। उसकी मूर्च्छा दूर की। परन्तु होश में आने पर सोचा- " अब जी कर भी क्या करना है ? हाय! मेरे मनोरथ का महल टूट गया। अब मुझे किसकी आशा से, किसके आधार से जीना है?" यों कहता- कहता वह जोर-जोर से रोता है और इसी आघात से उसका हार्ट-फेल हो जाता है। ' वस्तुतः पूर्वजन्म में किये हुए कर्मबन्ध के कारण ही उसे पुत्रमोह हुआ। जिसके कारण उसने नाना कष्ट सहे, बड़ी-बड़ी आशाओं का महल बांधा। परन्तु पूर्वबद्ध कर्म उदय में आने से पुत्र सहारा देने के बदले बेसहारा बनाकर छोड़ गया। सच पूछा जाए, तो उसका लड़का तो दुःखानुभूति में केवल निमित्त बना था, दुःख का मूल तो पूर्वबद्ध कर्म ही था। वह करोड़पति से रोड़पति क्यों बना? वह एक करोड़पति पिता का पुत्र था। खूब धूमधाम से उसका जन्मोत्सव मनाया गया। माता-पिता, भाई-बहन सभी उससे लाड़-प्यार करते थे। बाल्यवय अत्यन्त सुख में बीती । किशोरक्य में पढ़ने-लिखने के दिनों में वह मटरगश्ती करने लगा। नीच मित्रों की कुसंगति में पड़कर वह कई दुर्व्यसनों का शिकार हो गया। यौवन अवस्था आते-आते वह वैभव-विलास, राग-रंग एवं आमोद-प्रमोद में पड़ गया। प्रतिदिन नई-नई जगह में सैर-सपाटे करना, नये-नये पिक्चर देखना, और रोज वारांगना की महफिल में बैठना, धन-सम्पत्ति उड़ाना और मौज - शौक करना, यही जीवन का उद्देश्य बना लिया उसने। पिता की सम्पत्ति का वह मनमाना दुरुपयोग करने लगा। शादी हुई फिर भी उसको अपने जीवन का तथा अपने भविष्य का कुछ भी भान न हुआ। 9. जैनदर्शनमा कर्मवाद से भावांशग्रहण पृ. ५-६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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