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________________ दुःख-परम्परा का मूल : कर्मबन्ध १९ __वह लड़की सभी का तिरस्कारपात्र बन गई। वह सभी की नजरों में गिर गई। बेचारी धनाढ्य पिता की पुत्री होते हुए भी अनाथ, असहाय, पीड़ित, तिरस्कृत और अप्रसन्नता का जीवन बिताती हुई घर के एक कोने में दीन-हीन-पराश्रित बन कर बैठी रहती। स्वयं को अत्यन्त दुःखी महसूस करती रहती। बताइए, इतने सुखप्राप्ति के साधन होते हुए तथा धनाढ्य घर की लड़की होते हुए भी एवं मानव जैसा देवदुर्लभ जन्म प्राप्त होने पर भी भयंकर दुःखानुभूति या दुःखप्राप्ति उसे क्यों हुई? ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि इस दुःख का मूल कारण पूर्वकृत कर्मबन्ध ही है। दीनता, निर्धनता और असहायता के दुःख का मूल-पूर्व कर्मबन्ध एक व्यक्ति को मनुष्य जैसा उत्तम जन्म तो मिला। परन्तु परिवार में धर्म का कोई वातावरण नहीं मिला, न ही उत्तम धर्मसंस्कार मिले। बचपन में ही माता-पिता का वियोग हो गया। इसलिए दीनता और दरिद्रता की चक्की में पिसते हुए किसी तरह वह वयस्क हुआ। मेहनत-मजदूरी करके अपना गुजारा चलाने लगा। संयोगवश एक गरीब पिता ने उसके साथ अपनी लड़की ब्याह दी। थोड़ी-सी सुखानुभूति हुई। पति-पत्नी दोनों मेहनत करके गृहस्थाश्रम की गाड़ी खींच रहे थे। प्रौढ़वय में उसके एक लड़का हुआ। किन्तु उसके दो साल बाद ही पत्नी चल बसी। अब वह और उसका पुत्र ये दो ही प्राणी रह गए। चिन्ता के कारण अकाल में ही वह वृद्ध हो गया। शरीर में रोग और अशक्ति ने डेरा जमा लिया। उसने निश्चय कर लिया कि मुझे पुत्र को पढ़ा लिखा कर बुद्धिमान और संस्कारी बनाना है, ताकि बुढ़ापे में मेरा सहारा बने। यह शिक्षित हो कर कमाने लगेगा; फिर मैं शान्ति से निश्चिंतता का जीवन जीने लगूंगा। परन्तु मनुष्य की सारी आशाएँ और आकांक्षाएँ कब फली है? वह कुछ और सोचता है और उसके बांधे हुए कर्म कुछ और ही खेल खिलाते हैं। बेचारा वृद्ध अपने पुत्र को पढ़ाने और बाद में स्वयं सुखी हो जाने की आशा में जी-तोड़ मेहनत करता . है। शरीर अशक्त और लाचार है, फिर भी मन को मनाकर प्रतिदिन सख्त मजदूरी करता है। उसका पुत्र ज्यों-ज्यों उच्च कक्षा में चढ़ता जाता है, त्यों-त्यों वृद्ध का आशातन्तु भी कल्पना का कमनीय महल बांधता जा रहा था, कि अब तो तीन चार वर्ष पश्चात् ही मेरी स्थिति सुखद हो जाएगी। लड़का कमाएगा, मेरी सेवा करेगा। मैं शान्तिपूर्वक आनन्द से जीऊंगा। . परन्तु उसका यह कल्पना का हवाईमहल उस दिन अचानक ही टूट कर धराशायी हो गया, जिस दिन उस कुपुत्र ने अपने उपकारी पिता को सदा-सदा के लिए छोड़कर चले जाने का निश्चय किया। अपने इस निश्चय को बताने के लिए १. वही, पृ. ४ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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