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६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) है, वह चीकने कर्म बांधता है और उस स्निग्ध-कर्मबन्ध के फलस्वरूप वह दुरुत्तर एवं घोर संसार-समुद्र में पड़ता है।'' उत्तराध्ययन सूत्र में तो साफ-साफ कहा है-“जो मनुष्य पापकर्म से धन संचित करके उसे अमृत-सम जान कर (अबुद्धिपूर्वक) ग्रहण करते हैं, वे विषयरूपी पाश-बन्धन में फंस कर तथा अनेक जीवों के साथ वैर भावरूप कर्म बांध कर नरक के मेहमान बनते हैं।" "जिस प्रकार संधिमुख में सेंध लगाता हुआ (रंगे हाथों) पकड़ा गया चोर अपने चौर्यकर्मरूप पापकर्म का कर्ता होने से मारा जाता है; इसी प्रकार उन पापकर्मी जीवों को भी अपने द्वारा किये (बांधे) गये पापकर्मों का फल इस लोक या परलोक में भोगे बिना छुटकारा नहीं है।"२ उत्तराध्ययन सूत्र में आगे और भी कहा गया है-“उसने स्वयं ने जो भी शुभ या अशुभ अथवा सुखरूप या दुःखरूप कर्म किये (बांधे) हैं, उन कर्मों से संयुक्त (बद्ध) होकर जीव परलोक में जाता है।"३
प्राचीनकाल में कई ऐसे मतवादी (अन्यतीर्थिक) भी थे, जो यह मानते थे कि "दुःखरूप कर्म अकृत्य है, अर्थात्-आत्मा (जीव) द्वारा नहीं किया (बांधा) जाता, तथा दुःखरूप कर्म अस्पृश्य है, अर्थात-आत्मा द्वारा उसका स्पर्श नहीं होता, तथा दुःख अक्रियमाण कृत है, अर्थात्-वह आत्मा द्वारा बिना किये हुए ही किया जाता है; उसे बिना किये (बांधे) ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व उसकी वेदना वेदते (फल भोगते) हैं।" परन्तु भगवान महावीर ने इसका पूर्णतया खण्डन किया है। उनसे जब पूछा गया"भगवन् ! यह (कर्म-बन्ध-जनित) दुःख किसने किया है?" इसके उत्तर में उन्होंने कहा-“वह दुःख स्वयं जीव ने ही अपने लिए प्रमाद-वश होकर उत्पन्न किया है और वही जीव स्वयं द्वारा कृत (बद्ध) कर्म-जनित दुःख का वेदन करता है-भोगता है।"४ १. विभूसा-वत्तिय भिक्खू, कम्म बंधइ चिक्कण । संसार-सायरे घोरे, जेण पडइ दुरुत्तरे ॥
-दशवकालिक सूत्र अ. ६, गा. ६६ २. (क) जे पायकम्मेहिं धणं मणुस्सा, समाययंति अमई गहाय ।
___ पहाय ते पास-पयहिए णरे, वेराणुबद्धा णरय उति ॥ (ख) तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी । एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण ण मुक्ख अत्यि ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र अ. ४, गा. २,३ ३. तणावि ज कय कम्म, सुह वा जइ वा दुहं । कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छइ उ पर भव ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र अ. १८, गा. १७ ४. (क) अणउत्थिया ण भंते ! एवमाइक्खंति , अकिव्वं दुक्ख, अफुस दुक्ख, अकज्जमाण
कई दुक्ख । अकटु अकटु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेति त्ति वत्तव्यं सिया? जे ते एवमाहंसु ते मिच्छा एवमाहंसु । अहं पुण एवमाइक्खामि एवं परवेमिकिच्चं दुक्खं, फुस दुक्खं, कज्जमाण-कर्ड दुक्ख । कटु कटु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेति ति वत्तव्य सिया ।
-स्थानांग. स्था. ३, उ. २, सू. ३३७ (ख) से ण भंते ! दुक्खे केण कडे? जीवेण कडे पमाए । से. ण भंते ! कह वेइज्जति? अप्पमाएण॥
-स्थानांग सूत्र स्था. ३, उ. २, सू. ३३६
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