SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मबन्ध का अस्तित्व ५ आप्त सर्वज्ञ महापुरुषों द्वारा कर्मबन्ध का प्रत्यक्षीकरण कोई व्यक्ति पूर्वाग्रहवश या हठाग्रह - ग्रस्त होकर चर्म चक्षुओं से न दिखाई देने वाली किसी वस्तु के अस्तित्व को नहीं मानता, इतने से ही उस वस्तु के सद्भाव से इन्कार नहीं किया जा सकता। उन वस्तुओं को आगम (आप्तवचन), अर्थापत्ति अथवा अनुमान के आधार पर मानना ही पड़ता है। अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न सर्वज्ञ वीतराग आप्त पुरुषों ने तो कर्मबन्ध को हथेली पर रखे हुए आँवले की तरह प्रत्यक्ष देखा है, देखते हैं, अनुभव भी किया है, करते हैं। उन वीतराग सर्वज्ञ आप्तपुरुषों के द्वारा प्रत्यक्षीकृत कर्मबन्ध को कैसे झुठलाया जा सकता है? पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में वीतराग सर्वज्ञ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने स्पष्ट कहा है- " मैं तुम्हारे समक्ष अष्टविध · (बद्ध होने वाले) कर्मों का क्रमशः प्रतिपादन करूंगा; जिन ( कर्मों) से बंधा हुआ यह (संसारी) जीव संसार (जन्म-मरणरूप संसार) में बार-बार पर्यटन परिभ्रमण करता है। 9 उन वीतराग सर्वज्ञ आप्त-पुरुषों के वचनों पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है; क्योंकि उन्हें असत्य कहने में कोई भी, किसी भी प्रकार का स्वार्थ, लोभ, क्रोध, प्रतिक्रिया, भय या राग-द्वेष नहीं है। कर्मबन्ध के विषय में प्रत्यक्षदर्शी महापुरुषों के अनुभूत वचन चूंकि कर्मबन्ध भावबन्धनरूप प्रतीत होता है, किन्तु कर्मपुद्गलों के साथ आत्मा के बद्ध होने से द्रव्यबन्धनरूप होने पर भी जिन अल्पज्ञ व्यक्तियों को प्रत्यक्ष न होते हुए भी जिन सर्वज्ञ आप्तपुरुषों ने उसके अस्तित्व का प्रत्यक्षीकरण किया है, उनके कथन से कर्मबन्ध को प्रत्यक्षवत् माने बिना कोई चारा नहीं है। उन प्रत्यक्षदर्शी महापुरुषों ने 'ज्ञातासूत्र' में बताया है - " जैसे शब्दादि विषयों में गृद्ध (आसक्त) बने हुए अश्व पाश से बांधे गए, वैसे ही पंचेन्द्रिय विषयों में रत (आसक्त ) जीव परम ख के कारणरूप घोर कर्मबन्ध को प्राप्त होते हैं। " २ इसी प्रकार 'दशवैकालिक सूत्र' मैं भी स्पष्टरूप से कहा गया है- " जो साधक अयतना (अविवेक) से चर्या करता है, अयतना से खड़ा होता है, बैठता है, तथा सोता है, या खाता है, बोलता है, अथवा अन्य क्रियाएँ अयतना से करता है, वह अन्य प्राणियों की और एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करता है; एवं पापकर्म का बन्ध करता है, जिसका कटु फल उसे बाद में भोगना पड़ता है।'' ३ ‘“जो साधक शारीरिक विभूषा (सौन्दर्य - वृद्धि) में प्रवृत्त हो जाता १. . अट्ठकम्माई वोच्छामि, आणुपुव्वि सुणेह मे । जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परियट्टइ ॥ २. जहा सद्दाइसु गिद्धा, बद्धा आसा, तहेव विसयरया । पार्वति कम्मबंध, परमासुह-कारणं घोरं ॥ ३. दशवैकालिक सूत्र अ.. ४, गा. १ से ६ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only -उत्तराध्ययन अ, ३३, गा. १ -ज्ञाताधर्मकथा सूत्र १७ / ४ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy