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________________ ४७६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) से वह स्थिति दो ही प्रकार की बताई है-उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति। उत्कृष्ट स्थिति का अर्थ है-अधिक से अधिक काल तक प्राप्त शरीर या भव में स्थित रहना। और जघन्य स्थिति का अर्थ है कम से कम काल तक शरीर या भव में अवस्थित रहना। किन्तु इसके मध्य में असंख्यात भाग होते हैं; क्योंकि उत्कृष्ट और जघन्य से तो बस्तु के अन्तिम दो छोर का ही ग्रहण किया जाता है, एक इस पार का और दूसरा उस पार का। बीच में असंख्यात भागों का ग्रहण इन दोनों से नहीं होता। इसलिए कई आचार्यों ने इन दोनों के बीच की स्थिति को ग्रहण करने की दृष्टि से मध्यम स्थिति भी मानी है। मध्यम स्थिति का अर्थ है-जो जघन्य स्थिति से एक समय आदि अधिक हो और उत्कृष्ट स्थिति से एक समय कम हो। इसी को मध्यम स्थिति समझनी चाहिए।' जैनकालमान का प्ररूपण : समय से लेकर सागरोपम तक __ आधुनिक विज्ञान ने सूक्ष्म से सूक्ष्म काल का माप निश्चित किया है। उसने एक सैकंड के भी हजारों भाग कर दिये हैं, जिनका गणितीय उपयोग किया जाता है। किन्तु जैनागमों (अनुयोगद्वार आदि) में जो कालमान दिया है; वह आधुनिक विज्ञान के कालमान से भी बहुत सूक्ष्म है। जैसे-जैन कालमान के अनुसार-काल के अत्यन्त सूक्ष्म अविभागी अंश, कल्पना से भी जिसके दो भाग न हो सकें, ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म कालांश को 'समय' कहते हैं। ऐसे असंख्यात समयों की एक आवलिका होती है। असंख्यात आवलिका का एक उच्छ्वास-निःश्वास काल, दो श्वास का एक प्राण, सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, साढ़े अड़तीस लव की एक नाली या घटिका, दो घटिका (अथवा ७७ लव) का एक मुहूर्त (४८ मिनट) होता है। ३० मुहूर्त का एक अहोरात्र (दिन और रात) होता है। ____एक मूहूर्त (४८ मिनट लगभग) में ३७७३ श्वासोच्छ्वास होते हैं। अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्यात भाग होते हैं। निगोदिया जीव एक मुहूर्त में ६५५३६ बार जन्म लेता है। एक श्वासोच्छ्वास का काल एक सैकिंड से भी कम होता है, उतने काल में (अर्थात्एक श्वासोच्छ्वास में) निगोदिया जीव साढ़े सत्रह (सत्रह से कुछ अधिक) बार जन्म-मरण कर लेता है। ___एक अहोरात्र के पश्चात् १५ अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक अयन, दो अयन का एक वर्ष प्रसिद्ध है। उसके पश्चात् ५ वर्ष का एक युग, बीस युग की एक शताब्दी, दस शताब्दि की एक सहस्राब्दि, ८४00 सहस्राब्दि यानी ८४ लाख वर्ष का एक पूर्वांग, ८४ लाख पूर्वांग का एक पूर्व (अर्थात्-७०५६० अरब वर्ष), ८४ लाख पूर्व का एक त्रुटितांग, उसके १. (क) आत्मतत्व-विचार से भावांशग्रहण, पृ. ३४९ (ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. ३९४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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