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________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४७५ है, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश के बिना उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता तथा उत्कृष्ट स्थिति के साथ यदि उत्कृष्ट विशेष प्रत्यय रूप उत्कृष्ट संक्लेश के द्वारा उत्कृष्ट अनुभाग बांधा गया है, तो काल - वेदना ( स्थितिबन्ध ) के साथ भांव ( अनुभाव ) भी उत्कृष्ट होता है। और अनुभाग- सम्बन्धी उत्कृष्ट विशेष प्रत्यय के अभाव में भाव ( अनुभाग ) भी अनुष्कृष्ट ही होता है । ' स्थितिबन्ध : लक्षण, स्वरूप और कार्य जीव के अपने आयुष्य कर्म द्वारा प्राप्त आयुष्य के उदय से उस भव में अपने शरीर के साथ रहना स्थिति कहलाता है। धवला के अनुसार- योग के वश से कर्मस्वरूप से परिणत पुद्गल-स्कन्धों का कषाय के वश से जीव में एकस्वरूप रहने के काल को स्थिति कहते हैं। कर्मग्रन्थ के अनुसार स्थितिबन्ध का लक्षण है - अध्यवसाय से गृहीत कर्मदलिक की स्थिति के काल का नियम स्थितिबन्ध है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो- बंध हो जाने पर जो कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ ठहरा ( अवस्थित ) रहता है, वह उसका स्थितिकाल है, बंधने वाले कर्मों में इस स्थितिकाल की मर्यादा ( सीमा - अवधि) के पड़ने ( निश्चित हो जाने ) को स्थितिबन्ध कहते हैं। बंधा हुआ कर्म कितने समय तक जीव के साथ सम्बद्ध रहेगा ? इस प्रकार का निर्धारण ( निश्चय ) करना स्थितिबन्ध (ड्यूरेशन - Duration) का कार्य है। साथ ही, वह यह भी निश्चित करता है कि स्थिति पूर्ण होते ही कर्म स्वयं ही निर्जीव होकर आत्मा से पृथक् हो जाएगा, झड़ जाएगा । २ स्थितिबन्ध का कार्य और प्रकार स्थितिबन्ध का कार्य है, जीव ने जैसा, जिस प्रकार से, जिस भाव से कर्म बांधा है, उसे तदनुसार फल देने की काल मर्यादा का निश्चय करना। वैसे तो सामान्य रूप १. (क) उक्कसाणुभाग बंधमाणो णिच्छएण उक्कसियं चेव ट्ठिदिं बंधदि, उक्कस संकिलेसेण विणा उक्कस्साणुभागबंधाभावादो । - धवला १२/४, २, १३, ४०/३९३/६ (ख) इन दोनों बन्धों की नियमतः व्याप्ति घटित नहीं होती; देवों और नारकों में कदाचित् यह तथ्य सुसंगत हो सकता है, मनुष्यों और तिर्यञ्चों में इस कथन से विपरीत भी देखा जाता है। अतः धवला का यह कथन विचारणीय है। (ग) जदि उक्कस्सट्ठिदीए सह उक्कस्स-संकिलिसेण उक्कस्स - विसेस-पच्चएण उक्कस्साणुभागो पबद्धो तो कालवेययणाए सह भावो वि उक्कसो होदि । उक्कस्स-विसेस-पच्चयाभावे सामचे । - धवला १२/४, २, १३, ३१/३९०/१३ २. (क) स्वोपात्तस्यायुष उदयात्तस्मिन् भवे शरीरेण सहाऽवस्थानं स्थितिः । - सर्वार्थसिद्धि ८/३/३७९ (ख) जोगवसेण कम्म सरूवेण परिणदाणं पोग्गलखंधाणं कसाय-वसेण जीवे एग-सरूवेणावाणकालो ट्ठदिनाम । - धवला ६/१, ९-६/२ (ग) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. ८७ (घ) तत्त्वार्थसूत्र, विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. ३९५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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