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________________ ४७२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अप्रत्याख्यानावरण कषाय का जघन्य अनुभागबन्ध संयम के अभिमुख अविरत सम्यग्दृष्टि जीव करता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय का जघन्य अनुभागबन्ध संयम के अभिमुख देशविरत गुणस्थान वाला करता है। अरति और शोक का जघन्य अनुभागबन्ध संयम के अभिमुख प्रमत्त-संयमी करता है। ___ आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग का जघन्य अनुभागबन्ध अप्रमत्त-संयत करते हैं। दो निद्रा (निद्रा और प्रचला), अशुभ वर्णादि चतुष्क, हास्य, रति, जुगुप्सा, भय और उपघात, इन ११ प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध अपूर्वकरण गुणस्थान वाले जीव करते हैं। तथा पुरुषवेद एवं संज्वलन कषाय का जघन्य अनुभागबन्ध अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वाले जीव करते हैं। पांच अन्तराय, पांच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण का जघन्य अनुभाग बन्ध । सूक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान में होता है। सूक्ष्म आदि तीन, विकल-त्रय, चारों आयु और. वैक्रियषट्क (वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगतिं, नरकानुपूर्वी) का जघन्य अनुभागबन्ध मनुष्य और तिर्यञ्च करते हैं। तथा उद्योत और औदारिकद्विक का अनुभागबन्ध देव और नारक करते हैं। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानपूर्वी, और नीचगोत्र का जघन्य अनुभागबन्ध सातवें नरक के नारक करते हैं। तीर्थकरनामकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध अविरत सम्यग्दृष्टि जीव करता है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध नरकगति के सिवाय शेष तीनों गति के जीव करते हैं। आतप प्रकृति का जघन्य अनुभागबन्ध सौधर्म स्वर्ग तक के देव करते हैं. सातावेदनीय, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और उनके प्रतिपक्षी असातावेदनीय, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति का जघन्य अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। . __ त्रस आदि चार, वर्णादि चार, तैजस आदि चार, मनुष्यद्विक, दोनों विहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, पराघात, उच्चगोत्र, ६ संहनन, ६ संस्थान, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, सुभग आदि तीन, उनके प्रतिपक्षी दुर्भग आदि तीन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। __ इस प्रकार पंचसंग्रह (प्रा.) के अनुसार सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, जघन्य, अजघन्य, उत्कष्ट अनुत्कृष्ट, प्रशस्त अप्रशस्त, देशघाति, सर्वघाती, प्रत्यय, विपाक और स्वामित्व, इन चौदह प्रकारों (द्वारों) की अपेक्षा से अनुभागबन्ध का सांगोपांग निरूपण किया गया है।२ १. इनके विशेष स्पष्टीकरण के लिये देखें, कर्मग्रन्थ भा. ५ की गा. ६७ से ७३ तक का विवेचन, पृ. १८३ से १९६ २. सादि-अणादियं अट्ठ य, पसत्थि-दर-परूवणा तहा सण्णा । पच्चय-विवाय-देसा सामित्तेणाह अणुभागो । -पंचसंग्रह (प्रा.) ४/४४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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