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________________ रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४६३ (रसबन्ध) के समस्त भेद गर्भित हो जाते हैं। उदाहरणार्थ-यदि सर्वजघन्य अनुभाग का प्रमाण ८ और सबसे उत्कृष्ट अनुभाग का प्रमाण १६ कल्पना करें तो आठ को सर्वजघन्य कहेंगे। और आठ से ऊपर ९ से १६ तक के भेदों को अजघन्य कहेंगे। इसी तरह १६ को उत्कृष्ट कहेंगे और १६ से एक कम और १५ से लेकर ८ तक के भेदों को अनुत्कृष्ट कहेंगे। संक्षेप में कहें तो उन-उन मार्गणाओं में रहे जीवों द्वारा किये जाते हुए पृथक्-पृथक् रसबन्धों की अपेक्षा से कम से कम होने वाला रसबन्ध जघन्य रसबन्ध है। जघन्य रसबन्ध के सिवाय बाकी के सभी रसबन्ध अजघन्य रसबन्ध हैं। सबसे अधिक होने वाला रसबन्ध उत्कृष्ट रसबन्ध है और उत्कृष्ट रसबन्ध के सिवाय सर्वाल्परसबन्ध तक के सभी रसबन्ध अनुत्कृष्ट रसबंध हैं। इस प्रकार (अनुभागशक्ति) रसबन्ध को विभिन्न द्वारों द्वारा चार प्रकार से समझाया गया है-(१) जघन्य रसबन्ध, (२) अजघन्य रसबन्ध, (३) उत्कृष्ट रसबन्ध और (४) अनुत्कृष्ट रसबन्ध। इन चार प्रकारों से रस (अनुभाग) शक्ति के अनन्त-अनन्त तारतम्य को लेकर अनन्त-अनन्त भेदों के परिज्ञान की कल्पना की जा सकती है। (२) संज्ञाद्वार : रसबन्ध के लिए प्रयुक्त दो संज्ञाएँ जैसे वैद्य और डाक्टर शरीर में उत्पन्न होने वाले रोग को अनेक संज्ञाओं से पुकारते हैं। कभी किसी एक रोग को उसका सामान्य नाम देकर उसके अन्तर्गत दूसरे रोगों को अनेक नाम देते हैं। जैसे-वातरोग एक रोग की सामान्य संज्ञा है। उसके अन्तर्गत-आमवात, ऊर्ध्ववात, सन्निपात, धनुर्वात, गठियावात आदि ८० संज्ञाएँ एक वातरोग की हो जाती हैं। इसी प्रकार यहाँ कर्म-रस की भिन्न-भिन्न कक्षाओं को लेकर विभिन्न नाम संज्ञाएँ दी गई हैं। उनमें घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा, ये दो संज्ञाएँ रस के लिए प्रयुक्त होती है। घातिसंज्ञा-प्ररूपणा द्वारा रसबन्ध के चार प्रकारों का निरूपण ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों को दो भागों में विभाजित किया है-घातिकर्म और अघातिकम। घातीकर्म भी दो प्रकार के हैं-सर्वघाती और देशघाती। जो जीव के ज्ञानादि गुणों का पूर्णतया घात करते हैं, वे सर्वघाती कर्म हैं, और जो एकदेश से घात करते हैं, वे देशघाती हैं। पंचसंग्रह के अनुसार केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रापंचक (दर्शनावरणीय की ५), मोहनीय की १२ (आदि की तीन कषायों की चौकड़ी), मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन २१ प्रकृतियों की सर्वघातीसंज्ञा है। तथा ज्ञानावरण के शेष चार प्रकार, दर्शनावरण की शेष तीन, अन्तराय की ५, सम्यक्त्व प्रकृति, संज्वलन-चतुष्क एवं नौ नोकषाय, ये छव्वीस देशघाती प्रकृतियाँ हैं। १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १९७ (ख). रसबन्धो (पीठिका) से, पृ. २७ २. वही, पृ. २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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